तुर्की में छात्र-नेतृत्व वाले तख्तापलट से जूझ रहे हैं एर्दोगन, लेकिन वह इससे बच नहीं सकते!

 


तुर्की के स्वघोषित खलीफा एर्दोगान अपनी नीतियों के कारण तुर्की की अर्थव्यवस्था की हालत चौपट कर चुके हैं। इसी वजह से अब तुर्की के असंतुष्ट युवाओं द्वारा स्वघोषित खलीफा की सत्ता को चुनौती दी जा रही है। तुर्की में बड़े पैमाने पर प्रदर्शन हो रहे हैं। WION की रिपोर्ट के अनुसार तुर्की के शहर इस्तांबुल में सैकड़ों छात्र तीन दिनों से आंदोलन कर रहे हैं। सरकार द्वारा विश्वविद्यालय में नए रेक्टर ‘अधीक्षक’ की नियुक्ति से छात्र-छात्रा असंतुष्ट हैं।

दरसल एर्दोगान, तुर्की के विभिन्न प्रशासनिक इकाइयों, विश्वविद्यालयों आदि पर अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए, वहाँ अपने लोगों को नियुक्त कर रहे हैं। इसे लेकर लोगों में असंतोष रहता है लेकिन तुर्की में इतने बड़े प्रदर्शन नहीं होते। ऐसे प्रदर्शन अंतिम बार 2017 में हुए थे जिसे व्यापक सरकारी दमन द्वारा शांत कर दिया गया था। यहाँ तक कि कई आंदोलनकारी आज भी अंकारा की जेल में बन्द हैं।

इस समय तुर्की के जो हालात हैं, उनमें ऐसे छात्र आंदोलन की शुरुआत एर्दोगान की सत्ता के अंत का कारण भी बन सकती है। ऐसा इसलिए क्योंकि इस समय तुर्की की अर्थव्यवस्था की हालत तेजी से खराब हो रही है। एर्दोगान की महत्वाकांक्षा के कारण तुर्की ने कई क्षेत्रीय शक्तियों से बैर मोल लिया है। एक ओर मुस्लिम जगत में अरब देशों से उसका टकराव बढ़ता ही जा रहा है वहीं दूसरी ओर EU में भी उसका कोई सहयोगी नहीं बचा है।

इतना ही नहीं तुर्की इस वक्त अन्य देशों में अपने प्रभाव को बढ़ाने के लिए, उनके आंतरिक व द्विपक्षीय मामलों में हस्तक्षेप कर रहा है, जैसा कि उसने लीबिया, सीरिया और नागोरनो काराबार में किया है। ऐसे में तुर्की में राजनीतिक असंतोष आंदोलन का रूप लेता है तो यह तुर्की, विशेष रूप से एर्दोगान, के विरोधियों के लिए अवसर होगा।

आंदोलनकारी विद्यार्थियों का टकराव एर्दोगान की इस्लामिक कट्टरपंथी नीतियों से है। उन्हें उनके शिक्षकों का समर्थन प्राप्त है। साथ ही तुर्की के ऐसे लोग, जो तुर्की को दुबारा अतातुर्क कमालपाशा की नीतियों पर चलाना चाहते हैं, वे भी आंदोलनरत विद्यार्थियों के पक्ष में हैं। ऐसे में पुलिस द्वारा आंदोलन दबाने के प्रयास, स्थिति को बिगाड़ने का ही काम कर रहे हैं।

एक ओर तो तुर्की में मुद्रा-स्फीति बढ़ रही है, जिससे महंगाई बढ़ रही है, वहीं दूसरी ओर तुर्की में प्रतिव्यक्ति आय भी कम हो रही है, जिससे आम लोगों को आवश्यक वस्तुओं को खरीदने में भी कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। इसके अतिरिक्त उनपर भ्रष्टाचार के आरोप भी हैं। इन समस्याओं से घिरे एर्दोगान, लगातार कट्टरपंथी नीतियों को बढ़ावा दे रहे हैं जिससे लोगों के असंतोष को मजहबी बातों की ओर मोड़ा जा सके।

इसी वजह से उन्होंने इस्तांबुल के ‘Bogazici’ विश्वविद्यालय में नए रेक्टर के रूप में Melih Bulu को नियुक्त किया है जो उनकी नीतियों के समर्थक हैं। दरसल इस्तांबुल का यह विश्वविद्यालय तुर्की में पंथनिरपेक्षता की विचारधारा का गढ़ है। यह विश्वविद्यालय पूर्णतः पश्चिमी शिक्षण पद्धति पर चलता है एवं उच्च शिक्षा की अमेरिकी पद्धति का पालन करता है।

आधुनिक लोकतांत्रिक विचारों का गढ़ होने के कारण एर्दोगान इसे अपने लिए एक संभावित खतरे के रूप में देखते हैं। इसलिए एर्दोगान ने इस विश्वविद्यालय को अपने नियंत्रण में लेने के लिए नए रेक्टर की नियुक्ति की है, जिसका वहाँ के विद्यार्थियों द्वारा विरोध हो रहा है।
एक आंदोलनकारी छात्र ने मीडिया चैनल पर कहा “जैसा कि आप जानते हैं, एक लंबे समय से, एकेपी (एर्दोगान का दल) विश्वविद्यालयों पर अपनी पकड़ मजबूत कर रहा है। ऐसा करने का सबसे आसान तरीका है नए रेक्टर को नियुक्त करना। यह हमारे देश के कई विश्वविद्यालयों में हुआ है, आज Bogazici विश्वविद्यालय की बारी है, लेकिन Bogazici के छात्र आज इसके खिलाफ बोलने के लिए सामने आए हैं। ”

पश्चिम एशिया में तानाशाही सरकार के बनने बिगड़ने का चलन बहुत आम है। इतिहास बताता है कि पश्चिम एशिया में अक्सर तानाशाहों का अंत ऐसे ही छोटे आंदोलनों द्वारा हुआ है जो बाद में बड़े आंदोलन का रूप ले लेते हैं। इसकी संभावना तब और भी प्रबल होती है जब उस देश की आर्थिक हालत खराब हो, सरकार पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप हों तथा सरकार की नीति के कारण देश वैश्विक स्तर पर अलग थलग पड़ गया हो। मिस्र, ट्यूनीशिया जैसे देशों में भी ऐसे ही हुआ था और तुर्की में भी ऐसा होगा, इसकी संभावना को नकारा नहीं जा सकता।

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