ट्रम्प के सत्ता से जाने के कारण अब ASEAN समूह को सताने लगा चीन की मनमानी का भय


यह एक सर्वविदित तथ्य है कि चीनी कम्युनिस्ट पार्टी और उसका नव-उपनिवेशवाद स्वतंत्र एवं लोकतान्त्रिक देशों के लिए एक चुनौती है। अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पिओ ने अपने एक वक्तव्य में कहा था कि “CCP से अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करना हमारे दौर का मिशन है और अमेरिका इसका नेतृत्व करने के लिए सबसे उपयुक्त है”। यह वक्तव्य केवल कथन ही नहीं था, बल्कि ट्रंप प्रशासन ने अपने चीन विरोधी रवैये से यह सबित भी किया।

लेकिन ट्रम्प की पराजय के बाद अब बाइडन के नेतृत्व में चीनी आक्रामकता का प्रतिरोध अमेरिका की विदेश निति में कितना महत्वपूर्ण होगा यह देखने लायक है। ऐसा इसलिए क्योंकि इससे पहले ओबामा के शासन में चीनी कार्रवाहियों के प्रति अमेरिका आँख मूंदे हुए था। उस वक्त बाइडन उपराष्ट्रपति थे। हालाँकि ट्रंप द्वारा किये गए नीतिगत बदलावों को ख़त्म करना बाइडन के लिए आसान नहीं होगा फिर भी यदि ऐसा हुआ तो इसका सबसे अधिक नुकसान आसियान देशों को होगा।

ऐसा इसलिए कहा जा सकता है क्योंकि अब तक आसियान ने चीन और अमेरिका दोनों के साथ समन्वय बनाकर चलने की नीति अपना रखी थी। ट्रंप प्रशासन के दौरान भी आसियान ने चीन के साथ व्यापारिक सम्बन्ध बढ़ाने पर जोर दिया जबकि चीन दक्षिणी चीन सागर में लगातार इन देशों की सम्प्रभुता पर चोट करता रहा था। साथ ही क्षेत्र में चीनी दबदबे को रोकने के लिए आसियान ने अमेरिका के साथ अपना रक्षा सहयोग भी कायम रखा। जैसे इंडोनेशिया ने अमेरिका के साथ रक्षा सहयोग बढ़ाने के लिए समझौता किया। साथ ही अमेरिका ने भी इंडोनेशिया को फाइटर जेट देने की इच्छा जाहिर की थी। इसके अतिरिक्त वियतनाम की बात करें तो अमेरिका वियतनाम को हथियारों की आपूर्ति करने के लिए उसके साथ कोई समझौता करने के लिए, लगातार प्रयास कर रहा था। साथ ही वियतनाम में भी, चीन की ओर से बढ़ते खतरे के कारण, विदेशों के साथ रक्षा सहयोग की मांग जोर पकड़ रही थी।

दरसल आसियान देशों को चीन की ओर से लगातार चुनौती मिलती रहती है। दक्षिणी चीन सागर में तो यह टकराव देखने को मितला ही है, इसके अतिरिक्त भी चीन का इन देशों की राजनीती और आंतरिक मुद्दों में दखल देना, एक चिंता का विषय है। हाल ही में म्यांमार की ओर से चीन पर यह आरोप लगाया गया था की वह उसके यहां कार्यरत अलगाववादी समूहों को हथियार मुहैया करवा रहा है। आसियान देशों पर लाओस प्रकरण का असर भी है। लाओस ने चीन के डेब ट्रैप में फंसकर अपने बिजली के ग्रिड का अधिकतर नियंत्रण एक चीनी कंपनी को दे दिया। इसके बाद आसियान देश चीन के डेब ट्रैप नीति के प्रति काफी सजग हो गए हैं। इसी कारण हाल ही में फिलीपींस ने अपने मनिला सबवे प्रोजेक्ट से चीनी कंपनियों को दूर ही रखा।

लेकिन एक प्रश्न जो अब भी आसियान के लिए चुनौती बना हुआ है वह यह है की कब तक वे आर्थिक लाभ और प्रत्यक्ष टकराव के भय के कारण चीनी आक्रामकता के विरुद्ध शांत रहेंगे। एक ओर चीन लगातार उनकी सम्प्रभुता को चुनती दे रहा है और दूसरी ओर वे उसके साथ आर्थिक सहयोग के अवसर तलाश रही हैं। जैसा की RCEP में देखने को मिला।

महत्वपूर्ण यह है की ट्रम्प शासन के दौरान, चीन अमेरिका ट्रेड वॉर का सबसे अधिक लाभ आसियान देशों को ही मिला था। साथ ही कोरोना के फैलाव के बाद जब बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने अपनी विनिर्माण इकाइयों को चीन से बाहर निकालने का अभियान शुरू किया, जिससे सप्लाई चेन का विकेन्द्रीकरण हो सके, तो इसका भी सर्वाधिक लाभ आसियान देशों को ही मिला।

ऐसे में चीन को भी यह पता है की वैश्विक अर्थव्यवस्था में उसके लिए भारत से भी बड़ा खतरा आसियान देश हैं। अतः आसियान देशों के लिए अधिक दिन तक चीन की चुनौती के प्रति आखें बंद रखना संभव नहीं होने वाला। क्योंकि आज नहीं तो कल चीन का कहर इनपर टूटेगा ही। चीन अपने सहयोगियों तक को बर्बाद कर देता है, जैसा उसने पाकिस्तान के साथ किया है, तो आसियान देश तो उसके प्रतिद्वंदी हैं। ऐसे में आसियान का चीन के साथ सहयोग कितने दिन टिकेगा इसक अनुमान लगाया जा सकता है। अब जबकि ट्रंप भी वाइट हाउस में नहीं हैं तो समय आ गया है की आसियान अपनी नीति में बदलाव करे और अपनी सम्प्रभुता और स्वतंत्रता के लिए खड़ा हो, इससे पहले की बहुत देर हो जाए।

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