20 साल बाद अमेरिका को होगा एहसास, डोनाल्ड ट्रम्प को डंप करके उसने क्या खोया!


अमेरिका का राष्ट्रपति चुनाव वैसे तो हमेशा ही वैश्विक राजनीति के लिए महत्वपूर्ण होता है। लेकिन इस समय संसार जैसी समस्याओं से जूझ रहा है, उससे इस चुनाव का महत्त्व और भी बढ़ गया था। राष्ट्रपति ट्रम्प की पराजय, आने वाले समय में होने वाले कई बदलावों की गति को थामेगी ही नहीं, बल्कि कई हो रहे बदलावों की दिशा भी तय कर सकती है।

ट्रम्प प्रशासन का सबसे महत्वपूर्ण कार्य था चीन की चुनौती को समझना और उसके खिलाफ कार्यवाही करना।इसके पूर्व में ओबामा प्रशासन के दौरान चीन को वैश्विक व्यवस्था के नियमों की धज्जियां उड़ाने की खुली छूट मिली हुई थी।डेमोक्रेटिक पार्टी का ध्यान रूस के बढ़ते प्रभाव को कम करने पर ही रहा।शीतयुद्ध के हैंगओवर में डूबा अमेरिकी प्रशासन, यूरोप और रूस के बीच की राजनीति में ही उलझा था।जैसे शीतयुद्ध के काल में अमेरिका, यूरोप में रूस का प्रभाव बढ़ने से रोकने का प्रयास करता था वैसे ही प्रयास 21वीं सदी में भी जारी था।

जबकि वास्तविकता में परिदृश्य उलट चुका था।अमेरिका के शत्रुओं में रूस ड्राइविंग सीट से बैकसीट पर जा चुका था और चीन अमेरिका के सबसे बड़े शत्रु के रूप में सामने आ रहा था।रूस अधिकाधिक चीन पर निर्भर हो रहा था।ऐसे में अमेरिका द्वारा लगाए गए आर्थिक प्रतिबंध रूस को चीन पर और अधिक निर्भर बना रहे थे तथा अनायास ही चीन रूस की मित्रता को मजबूत बनाकर, अमेरिका के विरुद्ध चीन का हाथ मजबूत कर रहे थे।

जबकि इन प्रतिबंधों का अमेरिका को कोई वास्तविक लाभ नहीं हुआ। रूस अपने हथियार वैसे ही बेच रहा है, जैसे पहले बेचता था। ईरान और सीरिया को वो आज भी वैसे ही मदद दे रहा है जैसे पहले करता था। यहाँ तक कि अमेरिका की परवाह किये बिना, रूस ने क्रीमिया को भी कब्जा लिया था। इतना ही नहीं जिस यूरोप में रूसी प्रभाव को रोकने की कोशिश, अमेरिका कर रहा था, वह स्वयं ही, अपनी ऊर्जा जरूरतों की पूर्ति के लिए रूस से समझौता कर चुका है।

ऐसे में ट्रम्प ने अनावश्यक रूसी विरोध पर रोक लगाई और सहयोग की कोशिशें शुरू की। संभवतः यदि वे दूसरे कार्यकाल में राष्ट्रपति बनते तो अमेरिका, रूस को चीन के पाले से तोड़कर अलग करने में सफल हो जाता। लेकिन बाइडन का रूस विरोधी रवैया, रूस चीन गठजोड़ को केवल मजबूत ही करेगा।

QUAD का जो स्वरूप हम आज देख रहे हैं यह दस वर्ष पूर्व ही सामने आ सकता था। शिंजो आबे ने 2007 में ही इसके लिए मुहिम शुरू की थी। लेकिन तब भारत में UPA और अमेरिका में ओबामा सरकार ने इसपर उतना ध्यान नहीं दिया। QUAD का असली स्वरूप सामने आया ट्रम्प और मोदी युग में। हालांकि बाइडन के लिए अमेरिका की इंडो पैसिफिक नीति को बदलना लगभग नामुमकिन है, लेकिन इतना तय है कि बाइडन और उनकी उपराष्ट्रपति कमला हैरिस, जिस प्रकार दूसरे देशों के आंतरिक मामलों पर टिप्पणी करते हैं, उनका मोदी सरकार से मनमुटाव हो सकता है, जो इंडो-US तथा QUAD में सहयोग के लिए अच्छा नहीं होगा।

ट्रम्प ने चीन की आर्थिक इकाइयों पर प्रतिबंध को योजनाबद्ध तरीके से लागू किया। वास्तव में अमेरिकी राजनीति, आंतरिक मामलों एवं प्रशासन में चीन का बढ़ता प्रभाव, अमेरिका के लिए बहुत खतरनाक साबित होगा। केवल ट्रम्प ही थे, जो इसपर लगाम लगाने का काम कर सकते थे। बाइडन तो वैसे भी चीन से ट्रेड वॉर खत्म करने की वकालत कर चुके हैं।

अमेरिकी अर्थव्यवस्था भी कोरोना की चपेट में आने के पूर्व बहुत शानदार प्रदर्शन कर रही थी। एक ओर जहाँ बाइडन, थर्ड वर्ल्ड की योजना, जैसे बेरोजगारी भत्ता बांटने का वादा कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर ट्रम्प के कार्यालय में अमेरिका में लगातार 76 महीनों तक रोजगार स्तर में बढ़ोतरी हुई थी, जो अमेरिकी इतिहास में एक रिकॉर्ड है।

पश्चिम एशिया की बात करें तो अब्राहम अकॉर्ड इस बात का सबसे बड़ा उदाहरण है कि कैसे ट्रम्प ने इस क्षेत्र का भूराजनैतिक परिदृश्य ही बदल दिया। अफगानिस्तान में भी ट्रम्प के कार्यकाल में ही यह संभव हुआ कि तालिबान इतिहास में पहली बार अफगानिस्तान सरकार से बात करने को राजी हुआ। संभव है कि ट्रम्प के रहते अफगानिस्तान में शांति स्थापित हो सकती थी।

भारत के संदर्भ में बात करें तो ट्रम्प हमेशा एक विश्वसनीय सहयोगी रहे। भले ही आर्थिक मामलों में दोनों देश कभी एकराय नहीं हुए, लेकिन इसका प्रभाव हमारे सहयोग पर नहीं पड़ा। वास्तव में ट्रम्प की भारत नीति बिल्कुल यथार्थवादी थी। उन्होंने भारत को हमेशा एक प्रतिद्वंद्वी अर्थव्यवस्था की तरह देखा एवं अपने देश के हितों को तरजीह दी, जो अमेरिका के लिहाज से बिल्कुल सही फैसला था। लेकिन सामरिक रूप से हमेशा भारत के साथ चट्टान की तरह खड़े रहे। यह एक समझदार एवं यथार्थवादी विदेश नीति का उदाहरण है।

चीन से स्टैंडऑफ के समय डिएगो गार्सिया में अमेरिका बॉम्बर उतारना हो या दक्षिण चीन सागर में नौसैनिक बेड़ा, अमेरिका ने खुलकर भारत के सहयोग में अपनी शक्ति का प्रदर्शन किया। जबकि ओबामा सरकार में चीन तो छोड़िए, पाकिस्तान तक के खिलाफ अमेरिका भारत के साथ नहीं होता था। वास्तव में ऐसा इसलिए है क्योंकि ओबामा सरकार की प्राथमिकता ही दूसरी थी।

अमेरिकी डीप स्टेट के लिए अमेरिकी युद्ध धन उगाही का जरिया हैं। अमेरिका ने तेल के लालच में पश्चिम एशिया को जला दिया। पाकिस्तान से भी सहयोग इसीलिए किया गया क्योंकि वह अफगानिस्तान और पश्चिम एशिया में अमेरिका के हितों की पूर्ति के हमेशा अपने सैन्य अड्डे इस्तेमाल करने देता था। इसके बदले उसे अमेरिकी डॉलर मिलते थे। एक तरह से देखें तो यह दो स्वार्थी ताकतों का सहयोग था। अपने स्वार्थ को डीप स्टेट ने वैश्विक शांति के लिए किए जा रहे युद्धों की संज्ञा दी। फ़िल्म और इतिहास में सदैव से परोसे गए, रूस विरोधी एजेंडा ने डीप स्टेट की बेवकूफाना और स्वार्थी नीतियों को प्रासंगिक बना दिया। जबकि वास्तविक शत्रु चीन दिनोदिन मजबूत होता रहा।

यह सत्य है कि उनके कार्यकाल में अमेरिका में विभिन्न समुदायों, विशेष रूप से ब्लैक और वाइट में टकराव बढ़ा है। लेकिन अमेरिका में यह जहर हमेशा से मौजूद था, ट्रम्प के कार्यकाल में इसका भद्दा चेहरा दुनिया ने देख लिया। वास्तव में अमेरिका का यह सामाजिक वैमनस्य किसी मवाद वाला नासूर जैसा है। केवल दृष्टिकोण की बात है कि आप मवाद को नासूर के अंदर रखने के पक्ष में हैं या बाहर, दोनों स्थिति में नासूर जस का तस रहेगा।

ट्रम्प ने इस पूरी व्यवस्था को ही चुनैती दे दी। यही कारण रहा कि अमेरिकी डीप स्टेट उनके खिलाफ हो गया। यह सत्य है कि ट्रम्प को चतुराई से बात करना नहीं आता। उनकी इसी कमी का विरोधियों को लाभ हुआ। लेकिन ट्रम्प ने अमेरिका और विश्व के लिए जो किया है, उसे इतिहास से मिटाया नहीं जा सकेगा। अमेरिकी जनता और विश्व की लोकतांत्रिक शक्तियों को उनके कार्यों का महत्व आज से 20 साल बाद समझ आएगा।

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