पिछले कुछ दिनों से नेपाल की आबोहवा काफी बदली बदली सी दिखाई दे रही है। नेपाल में कई शहरों, विशेषकर काठमांडू में खुब प्रदर्शन हो रहे हैं, जिसमें नेपाल को पुनः हिन्दू राष्ट्र में परिवर्तित करने की मांग ज़ोरों पर है, और ये कूटनीतिक और राजनीतिक तौर पर चीन के लिए शुभ संकेत नहीं है।
जी हां, आपने ठीक सुना। नेपाल में राजशाही को पुनः बहाल करने की मांग उठने लगी है, और इसके पीछे नेपाल भर में जगह-जगह भारी मात्रा में लोग प्रदर्शन भी कर रहे हैं। नेपाल में 2008 में 240 वर्षीय राजशाही के उन्मूलन के बाद अपनाये गये Federal Democratic Republican सिस्टम के खिलाफ प्रदर्शनकारियों ने नारे भी लगाए। इस पूरे प्रदर्शन में आधुनिक नेपाल के संस्थापक पृथ्वी नारायण शाह की तस्वीरें और नेपाल के राष्ट्रीय ध्वज को भी लहराया गया। इस प्रदर्शन का नेतृत्व राष्ट्रीय नागरिक आंदोलन समिति 2077 [विक्रम संवत के अनुसार] कर रही है। इस प्रदर्शन के दौरान लोग हिंदू राजतंत्र के पक्ष में जोरदार नारे लगाये और देश की राष्ट्रीय एकता और लोगों की भलाई के लिए देश में संवैधानिक राजतंत्र को बहाल करने को उचित ठहराया।
लेकिन यह महज संयोग नहीं हो सकता कि नवंबर में एक के बाद एक भारतीय राजनयिकों और सैन्य उच्चाधिकारियों ने नेपाल दौरा किया हो, और उसके तुरंत बाद नेपाल में राजशाही की मांग करते हुए व्यापक प्रदर्शन भी किए जाने लगे। इसमें कोई दो राय नहीं है कि नेपाल में राजशाही को खत्म करने में भारत के कूटनीतिज्ञों का भी काफी बड़ा हाथ रहा है, जिन्होंने 2008 तक नेपाल को लोकतंत्र में परिवर्तित करने में एक अहम भूमिका भी निभाई थी।
लेकिन जिस प्रकार से लोकतान्त्रिक व्यवस्था पर कम्युनिस्टों ने कब्जा जमा लिया, और जिस तरह से चीन नेपाल को अपना गुलाम बनाने के लिए दिन रात एक कर रहा है, उस समय राजशाही की मांग उठना भारत के लिए किसी सुनहरे अवसर से कम नहीं है। ऐसा लगता है कि भारत ऐसा वातावरण तैयार कर रहा है, जिससे नेपाल के निवासी स्वयं राजशाही को पुनः लागू करने के लिए प्रेरित हों।
इससे नेपाल और भारत को क्या लाभ होंगे? सर्वप्रथम तो नेपाल को कम्युनिस्ट शासन से छुटकारा मिलेगा, जिन्होंने नेपाल को चीन के जाल में फंसने दिया। इसके अलावा यदि राजशाही को पुनः लागू किया गया, तो भारत दशकों पुरानी अपनी गलती भी सुधारेगा जिसके कारण नेपाल चीन की ओर आकर्षित होने लगा और माओवादियों को नेपाली राजनीति में बढ़ावा दिया जाने लगा।
ऐसे में राजशाही के पुनः लागू होने से सबसे अधिक नुकसान चीन को ही होगा। पिछले कई महीनों में नेपाल जिस प्रकार से भारत को आँखें दिखाने लगा और भारतीय क्षेत्र पर भी दावा करने लगा, उसके पीछे प्रमुख तौर से दो लोगों का हाथ रहा – एक पूर्व माओवादी और नेपाल के वर्तमान उप प्रधानमंत्री एवं पूर्व रक्षा मंत्री ईश्वर पोखरेल, और दूसरीं चीनी राजदूत हूँ यानकी, जिनके कई नेपाली उच्चाधिकारी, विशेषकर नेपाली प्रधानमंत्री के पी शर्मा ओली से काफी घनिष्ठ संबंध थे।
इन दोनों के बिछाए मायाजाल के कारण नेपाल चीन की ओर खींचा चला जा रहा था, और भारत के साथ संबंधों में काफी दरारें भी आ चुकी थीं। लेकिन ये दांव तब उल्टा पड़ गया, जब चीन ने स्वभाव के अनुसार नेपाल की भूमि पर कब्जा जमाना शुरू कर दिया, और इसका विरोध करने वाले लोगों पर पैलेट गन से लेकर आँसू गैस के गोले भी बरसाए। ऐसे में बढ़ते जन आक्रोश के कारण के पी शर्मा ओली को कुछ कड़े कदम उठाने पड़े, और भारतीय थलसेना प्रमुख जनरल मनोज मुकुंद नरवणे के प्रस्तावित नेपाल दौरे के पहले ही ईश्वर पोखरेल से रक्षा मंत्रालय का पदभार छीन लिया गया।
जिस प्रकार से नेपाल में अब राजशाही को बहाल करने की मांग उठ रही है, उसे देखते हुए ये कहना गलत नहीं होगा कि एक बार फिर भारत ने कूटनीतिक मोर्चे पर चीन को पटखनी दी है, और यदि राजशाही पुनः बहाल हुई, तो चीन का दक्षिण एशिया को अपने कब्जे में करने का सपना बस सपना ही रह जाएगा।
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