भूटान, श्रीलंका और मालदीव- अपने पड़ोसियों को चीन से बचाने के लिए भारत है तैयार

 


हाल ही में भारत के पड़ोसी देश भूटान ने इज़रायल के साथ अपने कूटनीतिक संबंध स्थापित करने का फैसला किया है। इससे पहले जर्मनी ने भी इस दक्षिण एशियाई देश के साथ अपने आधिकारिक संबंध स्थापित किए थे। भूटान की कूटनीतिक राजधानी नई दिल्ली ही है और ऐसे में यह कहा जा सकता है कि भूटान के इस फैसले में कहीं न कहीं भारत की एक बड़ी भूमिका रही होगी।

सूत्रों की मानें, तो भूटान जल्द ही अमेरिका के साथ भी अपने रिश्ते स्थापित कर सकता है और ऐसे में अमेरिका इकलौता ऐसा पी5 देश होगा, जिसके साथ भूटान आधिकारिक तौर पर अपने कूटनीतिक संबंध स्थापित कर चुका होगा। इससे पहले भारत मालदीव और श्रीलंका में भी अमेरिका के प्रभाव को बढ़ाने के लिए अपनी ओर से हरी झंडी दिखा चुका है।

भारत की रणनीति साफ़ है- भारत अब श्रीलंका और नेपाल के मामले में की गई गलतियों से सीख लेकर अब इन देशों पर अपने साथी देशों की पकड़ को भी मजबूत कर रहा है ताकि भविष्य में ये देश किसी भी प्रकार चीन के झांसे में ना आ सकें।

चीन ने रणनीतिक तौर पर भारत को कमजोर करने के लिए भारत के पड़ोस में घुसपैठ करने की नीति पर काम किया है। श्रीलंका के साथ एक समझौते के तहत उसके 95 निर्यात को duty free करना हो, या फिर श्रीलंका में BRI के तहत बड़े पैमाने पर निवेश कर उसे अपने कर्ज़-जाल में फंसाना हो।

अब्दुल्ला यामीन के समय मालदीव में चीन ने सरकार को एक प्रकार से खरीद ही लिया था और इस देश को कर्ज़ के इतने बड़े गड्ढे में धकेल दिया कि आज वह देश चीन के कर्ज़ को चुकाने में अपनी असमर्थता भी व्यक्त कर चुका है। मालदीव के पूर्व राष्ट्रपति और मौजूदा स्पीकर मोहम्मद नशीद ने हाल ही में कहा था “अगर हम अपनी दादी के ज़ेवर भी बेच दें, तो भी चीन का कर्ज़ नहीं चुका पाएंगे।”

भारत के पड़ोसियों की ऐसी हालत किसी भी सूरत में भारत के लिए अच्छी खबर नहीं है। चीन के इसी आर्थिक प्रभाव को चुनौती देने के लिए अब भारत अमेरिका को भी दक्षिण एशिया में आमंत्रित कर रहा है। उदाहरण के लिए अक्टूबर महीने में अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पियो ने दक्षिण एशियाई देशों का दौरा किया था, जिसमें वे भारत के अलावा श्रीलंका और मालदीव के दौरे पर भी गए थे।

इस दौरान अमेरिका ने मालदीव में अपना दूतावास खोलने का भी ऐलान किया था। श्रीलंका में जाकर भी पोम्पियो ने चीन-विरोधी रुख अपनाकर रखा और चीनी कम्युनिस्ट पार्टी को “दरिंदा” कहकर पुकारा था।

यहाँ तक कि बांग्लादेश के साथ भी अब अमेरिका अपने आर्थिक सम्बन्धों को और मजबूत करने की बात कर रहा है। अब भूटान में अपने एक अन्य साथी इज़रायल देश को लाकर यहाँ भारत ने अपनी स्थिति को मजबूत और चीन की स्थिति को कमजोर किया है। भविष्य में इज़रायल भूटान में निवेश को बढ़ा पाएगा और अपनी परियोजनाएं चला सकेगा।

ऐसे में किसी प्रोजेक्ट पर काम के लिए भूटान के पास भी भारत के अलावा उसके साथी देशों के पास जाने का विकल्प मौजूद होगा, जिसकी वजह से चीन को इस देश में अपनी पैठ जमाने का कोई मौका ही नहीं मिल पाएगा।

भारत ने नेपाल और श्रीलंका episode से यह सीख ली है कि उसे दक्षिण एशिया में चीन से मुक़ाबला करने के लिए अपने साथी देशों को भी मैदान में उतारना होगा। अब दक्षिण एशिया में भारत का पलड़ा भारी इसलिए हुआ है, क्योंकि उसके साथ अमेरिका और इज़रायल जैसे देश भी रणनीतिक तौर पर भारत की सहायता कर रहे हैं। दूसरी ओर अपने घरेलू कर्ज़ के बोझ तले दबते चीन के पास इसे चुनौती देने के लिए शायद ही कोई विकल्प मौजूद हो!

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