तुर्की ने पहले इजरायल से दोस्ती करने वाले देश को धमकी ही, फिर ट्रंप ने लगाया बैन तो लिया यू टर्न


कुछ समय पूर्व तक कि बात है, तुर्की उन सभी इस्लामिक देशों की आलोचना कर रहा था जो इजरायल के साथ संबंध सुधारने के प्रयास कर रहे थे। तुर्की ने UAE सहित अन्य इस्लामिक देशों की, इजरायल के साथ संबंध सामान्य करने तथा उसे स्वीकृति देने के लिए, आलोचना की। इतना ही नहीं तुर्की लगातार पश्चिमी देशों के हितों को नुकसान पहुंचा रहा है फिर चाहे सीरिया में अस्थिरता पैदा करने के प्रयास हो या ग्रीस के साथ तनाव बढ़ाना। तुर्की की नीति अमेरिका और उसके सहयोगियों के लिए चिंता का विषय बन रहीं थीं।

किंतु जैसे ही ट्रम्प सरकार ने तुर्की पर आर्थिक प्रतिबंध की घोषणा की है, ऐसा लगने लगा है कि स्वघोषित खलीफा एर्दोगन को जमीनी वास्तविकता समझ आने लगी है। तुर्की ने अपने इस्लामिक एजेंडा से वापसी का कार्य शुरू कर दिया है। लगभग ढाई वर्षों तक इजरायल से तनावपूर्ण संबंध बनाए रखने के बाद तुर्की ने निर्णय किया है कि वह अपने राजदूत को इजरायल भेजेगा। गौरतलब है कि तुर्की प्रथम मुस्लिम बाहुल वाला देश था जिसने कभी इजरायल को मान्यता दी थी। तब तुर्की अपने चरित्र में पंथनिरपेक्ष हुआ करता था और तब अरब जगत इजरायल का धुर विरोधी था। लेकिन एर्दोगन की खलीफा बनने की सनक ने उन्हें कट्टरपंथी इस्लामिक नीतियों को अपनाने पर मजबूर किया। तुर्की ने अमेरिका एवं प्रमुख यूरोपीय शक्तियों के धैर्य को, उनकी क्षमता की सीमा तक नापा, और अब जब उसपर प्रतिबंध लग गया है, तो तुर्की अपनी नीति में 180° का मोड़ ले रहा है।

तुर्की ने इस कार्य के लिए येरूसलम से पढ़े अपने एक राजनयिक को चुना है। तुर्की की पिछले समय की नीतियों का नतीजा है कि वह आज अलग-थलग पड़ गया है। तुर्की एर्दोगन की महत्वाकांक्षा का मोल चुका रहा है। एर्दोगन को लग रहा था कि वह ऐसे मुद्दों को, जिनसे इस्लामिक जगत का भावनात्मक लगाव है उन्हें हवा देकर, इस्लामी जगत के सर्वमान्य नेता बन जाएंगे। उन्होंने सऊदी अरब की सर्वोच्चता को चुनौती देने के लिए लगातार आक्रामक रुख अपनाया। फिर चाहे अजरबैजान और आर्मेनिया का युद्ध हो, हागिया सोफिया को मस्जिद में बदलना हो या इजरायल की अल अक्स मस्जिद के मुद्दे को उठाना हो अथवा कश्मीर का मुद्दा हो, एर्दोगन हर उस झंझट में उलझने को आतुर थे जो उनकी खलीफा की छवि को मजबूत बना दे। नतीजतन अमेरिका ने किसी समय के भरोसेमंद सहयोगी होने के बाद भी तुर्की पर सैंक्शन लगा दिए।

यही नहीं तुर्की ने अपनी सामरिक नीति में, लगातार ईरान के साथ सहयोग बढ़ाने का कार्य किया। उसने चीन के साथ अपने आर्थिक संबंधों को मजबूत बनाया। उसके ऐसे सभी कार्य अमेरिका को नागवार होते यह स्पष्ट है। अब जब ट्रंप का कार्यकाल बस एक माह का बचा है तुर्की अपनी नीति में बदलाव कर रहा है। इसका कारण यह है कि बाइडन ने संकेत किया है कि वह तुर्की लर ट्रम्प की अपेक्षा ज्यादा सख्त होंगे। जबकि तुर्की को यह भी समझ आ गया है कि उसका एक साथ सऊदी और इजरायल, दोनों से विरोध, उसकी अपनी क्षमता से ज्यादा बड़ा जुआ था।

हालांकि, एर्दोगन का यह रवैया उसके नए बने सहयोगियों को आश्चर्य में भी डाल रहा है और उनके लिए समस्याएं भी लाएगा। पाकिस्तान का ही उदाहरण लें तो कश्मीर पर तुर्की की ओर से मिल रहे व्यापक समर्थन के कारण पाकिस्तान ने सऊदी धड़े से सीधा तनाव मोड़ लिया। नतीजन उसे सऊदी से मिलने वाली आर्थिक मदद भी बन्द हो गई, और अब तुर्की भी दुबारा अपने पुराने रास्ते पर वापस आ रहा है। ऐसे में पाकिस्तान अपने स्वभाव के अनुसार फिर मूर्ख साबित हो गया है। लेकिन नुकसान केवल पाकिस्तान का नहीं, तुर्की का भी हुआ है। एर्दोगन की मूर्खता ने तुर्की की विश्वसनीयता खत्म कर दी है। अब तो उसके पुराने सहयोगी उसपर भरोसा नहीं करते और नए वाले सहयोगियों का भरोसा भी डगमगा रहा है, उन्हें यह समझ आ रहा है कि उनका खलीफा थोड़े से आर्थिक प्रतिबंधों के दबाव में ही झुक गया है। एर्दोगन की चालाकियों के कारण असली पराजय तुर्की की ही हुई है।

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