अमेरिकी प्रतिबंधों के कारण अब नरम पड़ा तुर्की के राष्ट्रपति एर्दोगन का रुख

 


दुनिया में अमेरिकी वर्चस्व का एक बड़ा कारण उसके द्वारा अपने प्रतिद्वंद्वियों पर लगाए गए आर्थिक प्रतिबंध हैं। अमेरिका अपनी आर्थिक प्रभुता के बदौलत बिगड़ैल देशों की लगाम कस लेता है। विशेष रूप से ईरान, वेनेजुएला जैसे छोटे देशों की। इसी कड़ी में नया नाम है तुर्की का, जिसके राष्ट्रपति एर्दोगान के खलीफा बनने की सनक ने उसे अमेरिकी प्रतिबंधों का निशाना बनाया है।

तुर्की पर प्रतिबंध का कारण रूसी S400 की खरीद है, लेकिन यह तो केवल तकनीकी पहलू है वास्तविकता यह है कि राष्ट्रपति एर्दोगान की महत्वकांक्षा तुर्की को मित्रविहीन बना रही है। अब अमेरिका ने तुर्की के अड़ियल रवैये और अमेरिकी सहयोगियों को परेशान करने की नीति का जवाब दिया है।

अमेरिका की ओर से सख्ती के बाद तुर्की के स्वघोषित खलीफा राष्ट्रपति एर्दोगन के होश ठिकाने आने लगे हैं। तुर्की एक छोटी आर्थिक शक्ति है, ऐसे में उनके व्यवहार में बदलाव स्वाभाविक है। उन्होंने अपने रवैये में परिवर्तन करते हुए इजरायल और फ्रांस के साथ सहयोग की बात पर गंभीरता से विचार शुरू कर दिया है। ये वही एर्दोगान हैं जिन्होंने कुछ दिनों पहले UAE, बहरीन, आदि प्रमुख अरब देशों द्वारा इजरायल से संबंध सामान्य करने के कारण उनकी आलोचना की थी।लेकिन अब एर्दोगन ने निर्णय लिया है कि वह अपने राजदूत को इजरायल भेजेंगे।

एर्दोगान की कोशिश है कि किसी भी तरह इजरायल के साथ बिगड़े संबंध जल्द से जल्द सुधारे जाएं। इसलिए विशेषतः उफ़क उलतस ( Ufuk Ultas ) को चुना गया है जिन्हें यहूदियों की पवित्र भाषा हिब्रू की जानकारी है जो संबंध सुधारने के लिए तुर्की की तत्परता साफ जाहिर करता है।

वहीं फ्रांस के खिलाफ मुस्लिम जगत का नेतृत्व करने वाला तुर्की अब सीरिया सहित तमाम मुद्दों पर बातचीत के लिए तैयार है।तुर्की के विदेश मंत्री का कहना है कि उनका देश फ्रांस के साथ रिश्ते सामान्य करने को तैयार है बशर्ते फ्रांस सीरिया में तुर्की की सेना के प्रति अपनी नीति बदले। गौरतलब है कि फ्रांस और तुर्की के बीच पश्चिम एशिया में विभिन्न मुद्दों को लेकर गंभीर टकराव है।

फ्रांस ने भूमध्यसागर में खनिज पदार्थों को खोजने के लिए तुर्की द्वारा चलाए जा रहे अभियानों पर आपत्ति जताई थी। तुर्की बार-बार ग्रीस की सीमाओं का उल्लंघन कर रहा था और अंततः फ्रांस को हस्तक्षेप करना पड़ा था। इसके अलावा लीबिया में भी दोनों देश आमने सामने हैं।

नागोर्नो काराबाख में तुर्की द्वारा सीरियाई जिहादी भेजने का भी फ्रांस ने खुलकर विरोध किया था। दरसल तुर्की द्वारा एशिया और अफ्रीका में लगातार कट्टरपंथी इस्लामी प्रवृत्ति को बढ़ावा मिल रहा है। विशेष रूप से पश्चिम एशिया में और यह फ्रांस को स्वीकार्य नहीं है।लेकिन अब अमेरिकी आर्थिक प्रतिबंधों के कारण तुर्की पर अपना रवैया बदलने का दबाव और भी बढ़ गया है।

लेकिन अब लगता है कि तुर्की ने अपने रवैया बदलने  में बहुत देर कर दी है। तुर्की अब कई मोर्चों पर एक साथ घिर गया है। उसने पाकिस्तान-चीन और ईरान वाले धड़े को चुन लिया है। इसके चलते उसका भारत अमेरिका और सऊदी जैसे देशों से सीधा टकराव हो गया है। मुस्लिम देशों में अपनी स्वीकार्यता और दबदबा बढ़ाने के लिए तुर्की ने अरब देशों के नेतृत्व को चुनौती भी दे दी है।

तुर्की की कट्टरपंथी नीतियों ने फ्रांस और इजरायल को उसके खिलाफ कर दिया है। इस समय अमेरिका का हर प्रमुख सहयोगी तुर्की से नाराज है।ऐसे में तो यही लगता है कि एर्दोगान का बदला व्यवहार भी उनके पिछले पाप धोने के लिए नाकाफी साबित होगा।

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