अज़रबैजान और आर्मेनिया के विवाद में जीत आखिर किसकी हुई है? तुर्की, अज़रबैजान के साथ ही दुनिया के अधिकतर लोग यह मानते हैं कि इस युद्ध में अज़रबैजान का पलड़ा भारी रहा और अब Nagorno-Karabakh पर तुर्की और अज़रबैजान का प्रभुत्व काफी बढ़ गया है। हालांकि, इसी बीच अब फ्रांस ने एक ऐसा कदम उठाया है जिसके बाद अज़रबैजान-तुर्की की यह “जीत” तुरंत सबसे बड़ी हार में बदल सकती है। फ्रांस के इस कदम के बाद तुर्की और अज़रबैजान इस कदर तक बौखला गए हैं कि उन्होंने फ्रांस के खिलाफ ही मोर्चा खोल दिया है।
दरअसल, अब फ्रांस की Senate ने एक ऐसे प्रस्ताव को पारित किया जिसके तहत उसने फ्रांस सरकार से Nagorno-Karabakh को एक “स्वतंत्र देश” घोषित करने की अपील की है। फ्रांस की senate के इस कदम से ना सिर्फ फ्रांस में मौजूद अर्मेनियन समुदाय के समर्थकों में एक बड़ा संदेश गया है, बल्कि इससे फ्रांस ने Nagorno-Karabakh में तुर्की के प्रभाव को बड़ी चुनौती भी पेश की है। अब अज़रबैजान फ्रांस के इस कदम से इतना चिढ़ गया है कि उसने शांति प्रक्रिया से फ्रांस को बाहर करने का अनुरोध किया है। इसके साथ ही तुर्की के विदेश मंत्रालय ने भी फ्रांस की निंदा की है। फ्रांस के विदेश मंत्रालय के बयान के मुताबिक “फ्रांस द्वारा Nagorno-Karabakh की स्वतंत्रता का समर्थन करना ना सिर्फ भेदभावपूर्ण है बल्कि अव्यावहारिक भी है।”
बता दें कि अज़रबैजान और तुर्की, दोनों ही आर्मेनिया पर अपनी “जीत” को लेकर बेहद उत्साहित थे। ऐसा इसलिए क्योंकि प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर इस क्षेत्र को अज़रबैजान अपना हिस्सा मानता है और वह तुर्की का खास दोस्त भी है। ऐसे में अगर Nagorno-Karabakh एक स्वतंत्र देश बन जाता है, तो ना सिर्फ तुर्की-अज़रबैजान के सभी मंसूबों पर पानी फिर जाएगा, बल्कि क्षेत्र में फ्रांस का दबदबा भी कई गुना बढ़ जाएगा। तुर्की का सपना है कि वह रास्ते से आर्मेनिया को हटाकर अज़रबैजान के साथ सीधा जमीनी संपर्क स्थापित कर ले, ताकि वह क्षेत्र के प्राकृतिक संसाधनों पर अपना हक जमा सके। तुर्की ने इस संबंध में Nagorno-Karabakh में अपनी सेना की तैनाती को भी मंजूरी दे दी थी, लेकिन फ्रांस अभी तुर्की के रास्ते में दीवार बनकर खड़ा हो गया है।
फ्रांस द्वारा Nagorno-Karabakh की स्वतंत्रता का समर्थन करना तुर्की के लिए सबसे बड़ा सरदर्द क्यों है, वह भी जान लेते हैं। फ्रांस एक P5 देश होने के साथ-साथ Organization for Security and Co-operation in Europe) OSCE Minsk Group का सह-अध्यक्ष भी है। OSCE को वर्ष 1992 में इसलिए स्थापित किया गया था ताकि Nagorno-Karabakh को शांतिपूर्ण ढंग से सुलझाया जा सके। फ्रांस Firepower के मामले में यूरोप का सबसे शक्तिशाली देश है।
Minsk Group ही Nagorno-Karabakh के भविष्य को तय करेगा, और कानूनी तौर पर तुर्की का इस क्षेत्र पर कोई हक बनता ही नहीं है। Minsk Group में फ्रांस के साथ ही रूस और अमेरिका जैसी शक्तियाँ इसके सदस्य हैं, और तीनों देशों के साथ ही तुर्की का विवाद चल रहा है। अब फ्रांस ने अपने हालिया कदमों से यह साफ कर दिया है कि वह Minsk Group का इस्तेमाल कर क्षेत्र में तुर्की के हितों के खिलाफ ही काम करेगा। वह Minsk Group को आसानी से अपने विश्वास में लेकर Nagorno-Karabakh की स्वतंत्रता के विचार को लागू कर सकता है और तुर्की के पास उसे मानने के अलावा कोई और विकल्प होगा ही नहीं!
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