मर्केल के नेतृत्व वाली जर्मनी को पीछे छोड़, अब फ्रांस पूरे यूरोप का नेतृत्व कर रहा है

 


फ्रेंच राष्ट्रपति मैक्रों ने इस बार बर्लिन के साथ सही खेल खेला है। वर्षों तक जर्मनी का यूरोपीय संघ पर एकछत्र राज था, लेकिन अब पिछले कुछ महीनों में पास पूरी तरह पलट चुका है, और ये कहना गलत नहीं होगा कि मैक्रों ने बिना कोई शोर मचाए अब यूरोप की कमान अनाधिकारिक रूप से अपने हाथों में ले ली है।

मैक्रों ने ये उपलब्धि तीन कारणों से पाई है। प्रथम, उन्होंने रूस के साथ अपने संबंध मजबूत किए। द्वितीय – उन्होंने तुर्की को उसी की भाषा में जवाब देना उचित समझा और तीसरा प्रमुख कारण ये था कि वे समय रहते चीन से खतरे को भांप चुके थे। वहीं दूसरी तरफ जर्मन चांसलर एंजेला मर्केल स्थिति को जस की तस बनाए रखना चाहती है, चाहे खुद के देश की बलि क्यों न चढ़ जाए।

मैक्रों का कूटनीतिक अभियान 2018 में ही शुरू हो चुका था, जब उन्होंने ये चेतावनी दी थी कि चीन धीरे-धीरे अपनी हेकड़ी को बढ़ावा देगा, और वह हमारे देशों की स्वायतत्ता के लिए काफी हानिकारक है। इतना ही नहीं, मैक्रों ने अपने बयान में ये भी बताया कि इस समय पेरिस, दिल्ली और कैनबेरा में एक मजबूत साझेदारी की आवश्यकता है।

मार्च 2019 में राष्ट्रपति मैक्रों ने यूरोपीय काउन्सिल को एक बार फिर चेतावनी दी, “समय आ चुका है कि यूरोप चीन के प्रति सख्ती से पेश आए।” लेकिन जहां मैक्रों यूरोप को चीन के विरुद्ध सशक्त बनाना चाह रहे थे, तो वहीं एंजेला मर्केल चीन के साथ संबंध मजबूत बनाए रखने पर जोर दे रही थी। मर्केल ने बतौर EU अध्यक्ष यूरोप और चीन के बीच मजबूत रिश्तों की वकालत की, चाहे इसके पीछे चीन यूरोप के कुछ देशों के साथ कितनी भी गुंडई क्यों न करे।

मर्केल अपनी ही दुनिया में मस्त थी, जिसके कारण जर्मनी यह मानने को तैयार नहीं था कि चीन से उसे किसी प्रकार का कोई खतरा हो सकता है। इसीलिए वह चीन से संबंध बनाए रखने के लिए निरंतर रूस को विलेन बनाने पर उतारू था। मर्केल निरंतर मॉस्को के विरुद्ध प्रतिबंध की मांग करती थी, ताकि कैसे भी करके अमेरिका और जर्मनी के बीच संबंध और मजबूत बने। लेकिन मर्केल शायद ये भूल चुकी थी कि अब दुनिया कोल्ड वॉर जैसी नहीं रही, और व्हाइट हाऊस का प्रशासन संभाल रहे डोनाल्ड ट्रम्प चीन को लेकर अधिक चिंतित है।

वहीं दूसरी ओर मैक्रों ये भली भांति समझ गए थे कि रूस को हर बार दुश्मन की नजर से देखना आवश्यक नहीं है। इसीलिए धारणा के विपरीत जाते हुए मैक्रों ने पुतिन की ओर मित्रता का हाथ बढ़ाया, ताकि चीन जैसे शत्रु से मिलकर मुकाबला किया जा सके।

पिछले वर्ष जी-7 सम्मिट से पहले फ्रेंच राष्ट्रपति ने अपने रूसी समकक्ष के साथ एक अहम बैठक भी थी। इस संबंध को आगे बढ़ाते हुए मैक्रों ने इस वर्ष फिर पुतिन से मुलाकात की, जहां दोनों ने यूक्रेन, सीरिया और लीबिया के मुद्दों पर गहन चर्चा भी की। रूस की ओर हाथ बढ़ाने के लिए भले ही मैक्रों का प्रारंभ में लोगों ने उपहास उड़ाया हो, परंतु वर्तमान गतिविधियों से ये स्पष्ट हो चुका है कि वे कितने दूर की सोच कर आगे बढ़ते थे। इसीलिए जब चीन के अलावा तुर्की यूरोप को आँखें दिखाने लगा है, तो उससे निपटने के लिए फ्रांस ने अमेरिका और रूस को आश्चर्यजनक रूप से एक मंच पर साथ लाने का काम किया है।

वहीं जर्मनी ने क्या किया? बर्लिन तब भी अंकारा को अपना और यूरोप का भरोसेमंद साझेदार मानता रहा। जब ग्रीस ने तुर्की की गुंडई के विरुद्ध आवाज उठाई, तो जर्मनी ने मानो जानबूझकर उसे अनदेखा किया। अंत में फ्रांस को ही तुर्की को उसकी औकात बताने के लिए आगे आना पड़ा, जबकि यह काम जर्मनी को पहले करना चाहिए था।

ऐसे में मैक्रों ने तुर्की और चीन के विरुद्ध पूरे यूरोप की भावनाओं का सम्मान करते हुए इन दोनों देशों के विरुद्ध मोर्चा खोल दिया है, जिससे अनाधिकारिक रूप से अब वे यूरोप के असली नेता सिद्ध हुए हैं। वहीं दूसरी ओर बर्लिन को अपने नेता एंजेला मर्केल की नासमझी के कारण काफी बेइज्जती का सामना करना पड़ा है, और जो काम मर्केल को EU की अध्यक्ष होकर करना चाहिए था, वो काम अनाधिकारिक तौर पर मैक्रों कर रहे हैं।

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