अयोध्या मस्जिद समिति ने जाति के कारण मुख्य पक्षकार को ही बाहर कर दिया है


सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद जहां भव्य राममंदिर का निर्माण बिना किसी मतभेद के किया जा रहा है, तो दूसरी ओर दी गई 5 एकड़ जमीन पर मस्जिद बनाने को लेकर मुस्लिम पक्ष का दोगलापन सामने आया है क्योंकि इसके लिए बनाया गए संगठन में बाबरी मस्जिद केस के मुख्य पक्षकार को ही शामिल नहीं किया गया है जिसके पीछे का कारण उनका जातीय समीकरणों में अनफिट होना है। बहुसंख्यकों को जाति के नाम पर टारगेट करने वाले लोगों के लिए ये कदम एक तमाचे की तरह है जो हमेशा ही जातिगत मुद्दों पर एकतरफा एजेंडा चलाते हैं।

मुख्य पक्षकार को ठेंगा.

अयोध्या में मस्जिद निर्माण को लेकर खबर सामने आई है कि कोर्ट में दशकों तक चले इस मामले के मुख्य पक्षकार हाशिम अंसारी के बेटे इकबाल अंसारी, जो पिता की मृत्यु के बाद कोर्ट में बाबरी मस्जिद का पक्ष रख रहे थे, उन्हें ही दोबारा मस्जिद बनाने वाले इंडो-इस्लामिक कल्चरल फाउंडेशन ट्रस्ट के संगठन से बाहर कर दिया है। इसके बाद इस पूरे मसले को लेकर पिछड़े मुस्लिम संगठनों ने ही विरोध शुरू कर दिया है जिसमें पसमांदा मुस्लिम महाज नामक संगठन सबसे आगे है।

दरअसल, ये पहली बार नहीं है जब पसमांदा मुस्लिमों की अनदेखी हुई है। भारत में इन पसमांदा मुस्लिमों की तादाद पूरे मुस्लिम समाज में सबसे ज्यादा है, लेकिन उनका नेतृत्व करने वाला कोई नहीं है। उनकी मांगों को लेकर कोई आवाज नहीं उठती है। किसी भी सरकारी या गैर सरकारी संगठनों में इनका प्रतिनिधित्व न के बराबर है। जानकारों का मानना है कि इसके पीछे मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का बड़ा हाथ है और उस पर मुस्लिमों के सवर्ण वर्ग का नेतृव करने का आरोप है जिसके चलते इसकी काफी भद्द भी पिटती है। बोर्ड में मुस्लिम महिलाओं को जगह बड़ी मुश्किल से मिलती है और जिन्हें मिलती है वो भी उच्च वर्ग की अशरफ महिलाएं ही होती हैं।

इस्लाम में भी जातिवाद

जागऱण की एक रिपोर्ट बताती है कि भारत में मुस्लिमों में भी जातिवाद की जड़े अंदर तक फैली हुई हैं जो उसे खोखला कर रही है। रिपोर्ट साफ कहती है कि जातिवाद रहित इस्लाम का तर्क बिल्कुल ही बेबुनियाद है और ये यहां ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में है। जातिवाद को इस्लाम में भी सैद्धांतिक बताया गया है। इसके अलावा नस्लवाद और ऊंच-नीच का दलदल इसमें भी है।

दोगले पन की पराकाष्ठा

देश के सामाजिक औऱ राजनीतिक ताने बाने में जातीय गणित हमेशा महत्वपूर्ण होता है। जातीय़ शब्द को सुन या पढ़कर लोगों के दिमाग में बहुसंख्यक समुदाय के दलितों का ही नाम आता है, क्योंकि देश के राजनेताओं ने अपने एजेंडे के तहत केवल जनता के दिमाग में जाति का ये ही कूड़ा भरा है। बहुसंख्यकों के मंदिरों में दलितों के जाने के मुद्दों पर तो ये लोग खूब राजनीति करते हैं लेकिन अब ये लोग पसमांदा मुस्लिमों के जाति से जड़े इस मुद्दे पर चुप्पी साधे हुए हैं जो इनके दोगलेपन की पराकाष्ठा को दर्शाता है। गौरतलब है कि इसमें केवल राजनेता ही नहीं है बल्कि समाज सेवा के नाम पर प्रतिष्ठित पद पर बैठे सफेद पोश लोग भी शामिल हैं।

मुस्लिम पक्ष का रवैया ये दिखाता है कि कैसे ये लोग दलितों के नाम पर बयानबाजी करते हुए दलित मुस्लिम भाई-भाई का एजेंडा तो चलाते हैं, लेकिन जब नेतृत्व की बात आती है तो ये अपने ही धर्म में भेदभाव करते हैं।

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