बाबरी मस्जिद फैसला– कैसे लिबरल मीडिया मुसलमानों को पीड़ित ही बनाए रखना चाहती है


हाल ही में एक अहम निर्णय में सीबीआई के एक विशेष न्यायालय ने बाबरी मस्जिद में आरोपीत 32 व्यक्तियों को ठोस साक्ष्यों के अभाव में निर्दोष करार दिया। न्यायालय ने ये स्पष्ट किया है कि मस्जिद का विध्वंस पहले से सुनियोजित नहीं था, और ऐसे में मस्जिद को गिराने के लिए षड्यंत्र का रचा जाना अस्वाभाविक है, और अपने 2300 पृष्ठों के निर्णय में विशेष न्यायाधीश एसके यादव ने बताया कि आरोपियों के विरुद्ध सीबीआई कोई ठोस साक्ष्य नहीं पेश कर पाई है।

लेकिन इस निर्णय के आने के बाद से वामपंथियों, विशेषकर लिबरल मीडिया के ध्वजवाहकों के छाती पर साँप लोटने लगे हैं। जब से यह निर्णय सामने आया है, तब से ये ‘बुद्धिजीवी वर्ग’ मुसलमानों को यह महसूस कराना चाहते हैं कि उनकी इस देश में कोई पूछ नहीं है, और उन्हे किसी भी मामले में न्याय नहीं मिलता। कई भड़काऊ ट्वीट्स किए जा रहे हैं, ताकि मुस्लिम समुदाय बाबरी मस्जिद के विध्वंस को कभी न भूल पाये और वो खुद को विक्टिम समझें।

उदाहरण के लिए राणा अय्यूब का ट्वीट ही देख लीजिये। अपने ट्वीट में लिखती हैं, “दुस्वप्न तो 1992 में ही शुरू हो गया था। अगर 92 के लिए इंसाफ मिलता, तो 2002 होता ही नहीं। अगर 2002 के दोषियों को न्याय मिलता, तो वर्तमान भारत कुछ और ही होता। भारतीय मीडिया ने एक विचित्र किस्म का amnesia विकसित किया है, जिसने कथित सेक्युलर नेताओं के सभी पापों को धोने का काम किया है”।


परंतु बात यहीं पर खत्म नहीं होती। सीजे वर्लमैन जैसे प्रोपगैंडावादी पत्रकार इस बात को सुनिश्चित करना चाहते हैं कि मुसलमान बाबरी मस्जिद के विध्वंस को न भूलें, और उन्हें हमेशा अपने ‘शोषण’ की याद दिलाई जाये, जो उनके ट्वीट में भी स्पष्ट दिखती है, जहां वे ट्वीट करते हैं, “एक विशेष न्यायालय द्वारा बाबरी मस्जिद को गिराने वाले भाजपा नेताओं को बरी करना नरसंहार को औपचारिक रूप से उचित ठहराना है”।

इसी भांति रामचन्द्र गुहा ने इसी विचारधारा को धार देते हुए लिखा, “बाबरी मस्जिद का निर्णय – क्या मुसलमानों के लिए दुस्वप्न शुरू हो चुके हैं?”

चाहे संपादकीय हो, कार्टून हो या फिर ट्वीट, हर प्रकार से मुसलमानों में यह धारणा बिठाने का प्रयास किया जा रहा है कि उनके साथ गलत हुआ है, और इसके लिए सरकार से लेकर न्यायपालिका तक सब दोषी है। लेकिन यह सिलसिला यूं ही नहीं शुरू हुआ है। दरअसल, मुसलमानों को मीडिया का एक धड़ा हमेशा उन्हें पीड़ित बनाए रखना चाहता है, और वह नहीं चाहता कि भारत के मुसलमान इस भावना से ऊपर उठकर अपने और अपने देश के विकास के बारे में सोचे।

आज ये सिद्ध हो चुका है कि बाबरी मस्जिद को अयोध्या में श्रीराम को समर्पित भव्य मंदिर का विध्वंस कर बनाया गया था। इसी बात की पुष्टि करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने पिछले वर्ष श्रीराम जन्मभूमि परिसर के पुनर्निर्माण को हरी झंडी दी थी। लेकिन वामपंथी मीडिया ने दावा किया कि राम मंदिर पर सुप्रीम कोर्ट का निर्णय गलत है, और मुसलमानों ने अपनी मस्जिद हमेशा के लिए खो दी है। बाबरी मस्जिद के विध्वंस का मुद्दा करीब 28 वर्ष पुराना है, परंतु आज भी भारतीय मुसलमानों की वर्तमान पीढ़ी को अपने आप को पीड़ित समझने के लिए वामपंथी मीडिया द्वारा मजबूर किया जा रहा है।

बाबरी मस्जिद के मुद्दे के जरिये वामपंथी मुसलमानों को बरगलाना चाहते हैं, ताकि वे कभी भी अपने विकास और अपने पुनरुत्थान की ओर ध्यान न दें। हालांकि, ये पहला ऐसा मामला नहीं है, क्योंकि 2002 के दंगों पर मीडिया की जो कवरेज रही है, उसे देखते हुए बाबरी मस्जिद पर लिबरलों का विलाप अस्वाभाविक नहीं लगता। गोधरा के पास साबरमती एक्स्प्रेस में लगाई गई आग में जो निर्दोष व्यक्ति मारे गए, उन्हें पूरी तरह से अनदेखा कर जिस प्रकार से मुसलमानों को पीड़ित के तौर पर वर्षों तक दिखाया गया, उससे वामपंथी मीडिया मुसलमानों के हितैषी कम, और उनका अहित चाहने वाले ज़्यादा नजर आते हैं।

परन्तु दंगे हमेशा एकतरफा नहीं होते, जैसा कि मीडिया दिखाना चाहती है। जब हिन्दू या कोई अन्य समुदाय के साथ अन्याय होता है, तब यही मीडिया उस मामले को इस हद तक दबाना चाहती है, कि उसके बारे में बात करने के लिए भी आपको सांप्रदायिक घोषित कर दिया जाये। चाहे मरीछझापी का नरसंहार हो, या फिर मोपलाह के दंगे, या फिर नोआखली में उमड़े दंगे ही क्यों, इन्हें या तो लिबरल मीडिया द्वारा दबा दिया जाता है, या फिर इन्हें किसी विद्रोह की तरह महिमामंडित किया जाता है, जैसे मोपलाह दंगों के साथ किया गया। अंग्रेज़ों की ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति का इससे बेजोड़ उदाहरण और कहीं देखने को मिलेगा।

चाहे इशरत जहां का केस हो, या फिर बाटला हाउस का एनकाउंटर का मामला हो, इनका पीड़ितों वाला narrative ऐसा है कि अनेकों बार न्यायालय में झूठा सिद्ध होने के बावजूद वे अपनी दुकान चलाने और समाज में वैमनस्य बनाए रखने के लिए इस विचारधारा को बढ़ावा देते रहेंगे, और सीएए के विरोध के नाम पर शाहीन बाग में पनपे देशद्रोही तत्वों को बढ़ावा देना इसी बात का एक प्रत्यक्ष उदाहरण है। यदि राज्य को उनसे कोई घृणा न हो, तब भी एक विशिष्ट समुदाय को हमेशा इस छलावे में रखा जाता है कि सरकार उन्हें दबाना चाहती है, उन्हे कुचलना चाहती है।

इसके पीछे केवल वैचारिक ही नहीं, वित्तीय कारण भी है। दरअसल, वामपंथी मीडिया का जो भी सब्सक्राइबर बेस है, वो अधिकतर ऐसे ही लोगों से भरा हुआ है, जो अपने समुदाय के हित की बातें उनके माध्यम से सामने रखना चाहते हैं। जब ये सब्सक्राइबर बेस ही हट जाएगा, तो इन वामपंथियों की दुकानें कैसे चलेंगी? इसीलिए ये वामपंथी अपनी ‘दुकानों’ को बचाए रखने के लिए देश में आग लगाने को भी तैयार हैं।

यदि आपको विश्वास न हो तो शाहीन बाग में भाग लेने वाले बच्चों के विचार पर ही नज़र डाल लीजिये। जब उनसे पूछा गया कि वे यहाँ क्यों जमा है तो उन्होने बताया कि वे मोदी को मारना चाहते हैं, और जब इसका कारण पूछा जाता है तो वे बताते हैं कि मोदी सरकार उन्हे मारना चाहती है, उनके माँ बाप को देश से निकालना चाहती है।

आखिर किसने इन मासूम बच्चों के मन में ऐसा विष घोला? कौन उन्हे भड़का रहा है? इसके पीछे वही मीडिया है, जिसने सीएए जैसे कानून पर भी मुसलमानों के अधिकारों की बात करने के नाम पर मुसलमानों को भड़काने में कोई कसर नहीं छोड़ी। मीडिया द्वारा इसी प्रकार की विषैली रिपोर्टिंग किये जाने के कारण कई मुसलमान ‘हिंदुओं’ से बदला लेने के नाम पर गलत रास्ते की ओर मुड़ जाते हैं। उदाहरण के लिए पूर्वोत्तर दिल्ली में भड़के दंगों को ही देख लीजिये, जहां पर जांच पड़ताल में ये सामने आया कि ये दंगा इसलिए भड़का क्योंकि अनुच्छेद 370 के निरस्त होने और राम मंदिर पर सुप्रीम कोर्ट के निर्णय ने मुसलमानों को ‘आक्रोशित’ कर दिया था, और वे ‘हिंदुओं को सबक सिखाना’ चाहते थे। अब आपको यह अनुमान लगाने की आवश्यकता नहीं कि किसने दंगों के आरोपियों को इस दिशा में भड़काया होगा।

सच कहें तो वामपंथी मीडिया मुसलमानों को अपने वर्तमान दायरे से आगे ही नहीं बढ़ना देना चाहती है। ये बात शाहिद आज़मी जैसे लोग भली भांति समझ गए थे, जो आतंकवाद के मुहाने से वापिस लौटकर ऐसे दोहरे मापदण्डों को उजागर करने के उद्देश्य से वकालत कर रहे हैं। इसीलिए बाबरी मस्जिद के संबंध में लिबराल्स की रुदाली इसीलिए है, ताकि मुसलमानों के सर से ‘पीड़ित’ का टैग कभी न हट पाये।

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