पहले दुनिया से पंगे लिए, युद्ध का खर्च बढ़ा तो ब्याज़ दर बढ़ाया, लोगों का गुस्सा एर्दोगन को अब ले डूबेगा


तुर्की प्रशासन ने हाल ही में एक अहम निर्णय में तुर्की के ब्याज दरों को बढ़ाया है। पहली बार कई वर्षों में तुर्की ने अपने देश के ब्याज दरों को बढ़ाया है। इसके जरिये तुर्की प्रशासन तुर्की मुद्रा लीरा में दर्ज़ हो रही निरंतर गिरावट और देश में बढ़ती महंगाई को रोकना चाहता है, और साथ ही साथ जनता द्वारा तुर्की प्रशासन के प्रति बढ़ते विद्रोह को भी पनपने से पहले खत्म करना चाहते हैं।

अल अल जज़ीरा की रिपोर्ट के अनुसार, “हाल ही में तुर्की ने दो वर्षों के पश्चात ब्याज दरों को 2% से बढ़ाकर 10.25 प्रतिशत पर निर्धारित किया है। इस निर्णय से न केवल महंगाई पर नियंत्रण पाया जा सकेगा, अपितु ग्राहकों द्वारा उधार लेने की मात्रा में भी भारी कमी आएगी। इस निर्णय से ये भी स्पष्ट होता है कि तुर्की के लीरा [तुर्की की मुद्रा] को इस समय सहायता की सख्त आवश्यकता है, क्योंकि उसका मूल्य इस वर्ष 20 प्रतिशत से भी नीचे गिर चुका है, और अमेरिकी डॉलर के मुक़ाबले तुर्की के लीरा का मूल्य 7.7 तक पहुंच चुका है”।

यह वही एर्दोगन हैं जो कई महीनों तक तुर्की के ब्याज दर को न बढ़ाने के पक्ष में थे। एर्दोगन की हठधर्मिता किस हद तक जा सकती है, इसका उदाहरण देते हुए फाइनेंशियल पोस्ट ने अगस्त की रिपोर्ट में बताया था,तुर्की प्रशासन फिलहाल ब्याज दरों में इसलिए कोई बदलाव नहीं करना चाहता है, क्योंकि इससे तुर्की के राष्ट्रपति Recep Tayyip Erdoğan नाराज़ हो जाएंगे। उनके अनुसार ऊंचे ब्याज दरों से महंगाई बढ़ती है, जबकि अर्थशास्त्रियों के अनुसार ऊंचे ब्याज दरों से इसका ठीक उल्टा होता है। तुर्की के मुद्रा को चाहे जितना नुकसान हो, पर एर्दोगन का विचार नहीं बदलने वाला”।  

तो आखिर ऐसा क्या हुआ कि तुर्की के राष्ट्राध्यक्ष एर्दोगन को अपने ही निर्णय से पीछे हटना पड़ा? दरअसल, तुर्की की अर्थव्यवस्था की हालत इस समय बहुत ही खराब है, तुर्की की लीरा निम्नतम स्तर पर है, और अब अरब जगत भी तुर्की को पूरी तरह से अलग-थलग करने में जुटा हुआ है। इसकी शुरुआत सऊदी अरब ने काफी पहले ही कर दी थी, जिसपर TFI Post ने अपनी एक रिपोर्ट में प्रकाश भी डाला था। इसके अलावा तुर्की जाने वाले पर्यटकों में लगातार गिरावट हुई है, वहीं अमेरिका से प्रतिबंधों का खतरा मंडरा रहा है जिससे तुर्की की अर्थव्यवस्था गर्त के मुहाने पर है। ऐसे में विदेशी मुद्रा भंडार का लगातार गिरना तय है। तुर्की के सेंट्रल बैंक के आंकड़ों के अनुसार, इस साल इस्तांबुल स्टॉक एक्सचेंज में विदेशी निवेश 32.3 बिलियन अमेरिकी डॉलर से घटकर 24.4 बिलियन अमेरिकी डॉलर हो गया। वर्ष 2013 में यह आंकड़ा 82 बिलियन अमेरिकी डॉलर था। ऊपर से उस देश का मुखिया जो आये दिन अपने क़दमों से दोस्त कम दुश्मन अधिक बना रहा हो तो भला कोई क्यों निवेश कर रिस्क उठाये। निवेशकों को पता है कि तुर्की के बढ़ते कदमों के कारण अमेरिका और यूरोपीय संघ जैसी शक्तियाँ कभी भी प्रतिबंध लगा सकती है।

हमने अपनी एक रिपोर्ट में ये भी बताया था कि 2020 में जनता का ध्यान बेहाल अर्थव्यवस्था से भटकाने के लिए एर्दोगन ने लोगों में राष्ट्रवाद की भावना बढ़ाने का रास्ता अपनाया था। परन्तु अब एर्दोगन कि ये नीति फेल होती नजर आ रही है क्योंकि देश में महंगाई बढ़ गयी है, और बेरोजगारी रिकॉर्ड 12 प्रतिशत तक पहुंच चुकी है।

ऐसे में अब तुर्की को अपनी अर्थव्यवस्था कायम रखने और अपनी विस्तारवादी नीति को बढ़ावा देने के लिए खूब धनराशि चाहिए, जो बिना अर्थव्यवस्था में अहम बदलाव लाये नहीं होगा, जिसके लिए एर्दोगन को न चाहते हुए भी अपने ब्याज दर को बढ़ाना पड़ा है। गौर हो कि इस समय तुर्की ने कई देशों के साथ पंगा मोल लिया है, चाहे वो पूर्वी भूमध्य सागर क्षेत्र में ग्रीस और साइप्रस हो, पश्चिमी मोर्चे पर अमेरिका हो, या फिर आर्मेनिया और अज़रबैजान की लड़ाई में आर्मेनिया और उसके समर्थक देश ही क्यों न हो, तुर्की अब हर वो काम कर रहा है जो उसे दशकों पीछे धकेल दे।

एक और कारण जिसकी वजह से एर्दोगन को अपने ही निर्णय को बदलने के लिए बाध्य होना पड़ा है, और वो है जनता का आक्रोश। जब तुर्की की अर्थव्यवस्था रसातल में जा रही थी, तो अपने नागरिकों का ध्यान हटाने के लिए तुर्की ने कई देशों के साथ पंगा मोल लेकर अपनी जनता को मनाने का प्रयास किया, और इसी दिशा में काम करते हुए हागिया सोफिया परिसर को पुनः एक मस्जिद में परिवर्ती भी कराया। लेकिन अब धीरे-धीरे जनता के सामने एर्दोगन प्रशासन की असलियत खुलकर सामने आ रही है, और एर्दोगन भी शायद जान रहे हैं कि अब झूठे वादों से कोई काम नहीं बनने वाला। इसीलिए एर्दोगन को ब्याज दर बढ़ाना पड़ा है, लेकिन जनता की बलि चढ़ाकर आखिर कितने दिनों तक एर्दोगन अपनी सत्ता कायम रख पाएंगे?

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