चीन में आर्थिक उदारीकरण की कमी होने के कारण ही यह देश “Free World” की दया पर जीने को मजबूर है


भारत बेशक चीन से कई गुना छोटी इकॉनमी है। वर्ष 2019 में भारत की GDP जहां केवल 2.94 ट्रिलियन डॉलर थी, तो वहीं इसी वर्ष चीन की GDP 14.14 ट्रिलियन डॉलर थी, यानि भारत से करीब 5 गुणा ज़्यादा! हालांकि, जहां तक बात आर्थिक स्ट्राइक करने की है, वहाँ भारत चीन के खिलाफ ज़्यादा आक्रामक दिखाई देता है, जबकि चीन बड़ी आर्थिक ताकत होने के बावजूद भारत के खिलाफ कोई बड़ा कदम चल ही नहीं पा रहा है। इसका कारण है चीन में आर्थिक उदारवाद की कमी होना। चीन ने दशकों तक अपने बाज़ारों को वैश्वीकरण से दूर रखा, जिसके कारण उसे बेहद ज़्यादा आर्थिक फायदा हुआ। उदारीकरण नहीं करने की वजह से चीन की घरेलू कंपनियाँ ग्लोबल बन गईं, क्योंकि उन्हें कंपीटीशन देने वाला चीनी मार्केट में कोई घुस ही नहीं पाया। हालांकि, उदारीकरण की यही कमी आज चीन के लिए सबसे बड़ा अभिशाप बनकर उभर रही है।

चीन ने अपने मार्केट को विदेशी कंपनियों के लिए कभी नहीं खोला, जिसके कारण भारतीय कंपनियों के पास भी चीनी मार्केट का कोई शेयर ही नहीं है। चीन ने विदेशी कंपनियों पर कई पाबन्दियाँ लगा दी, जिसके कारण चीन का 1.4 बिलियन लोगों का विशाल मार्केट सिर्फ चीनी कंपनियों तक ही सीमित रहा। यही कारण था कि चीन की लोकल कंपनियाँ जैसे Tencent, Huawei और Alibaba जैसी कंपनियाँ दिग्गज कंपनियाँ बन गयी, और फिर इन्होंने अपने देश से बाहर भी operate करना शुरू कर दिया।

हालांकि, वर्ष 2016 में ट्रम्प के सत्ता में आने के बाद सब बदल गया। ट्रम्प ने Free trade और वैश्वीकरण के खिलाफ काम करना शुरू किया। ट्रम्प पहले ही हुवावे और ZTE जैसी कंपनियों के पीछे पड़े हुए थे, उसके बाद कोरोना के कारण दुनियाभर के देश और ज़्यादा अनुदार हो गए। अब भारत और अमेरिका जैसे देश लगातार चीनी कंपनियों को अपने यहाँ से बाहर फेंक रहे हैं और चीनी निवेश पर प्रतिबंध लगा रहे हैं।

हालांकि, चीन इन देशों के खिलाफ चाहकर भी कोई बदले की कार्रवाई नहीं कर सकता, क्योंकि चीन ने कभी अपने यहाँ विदेशी कंपनियों को आने ही नहीं दिया। सोचिए अगर आज चीन में भारत की कंपनियाँ काम कर रही होती, और उनके पास चीनी मार्केट का अच्छा-खासा मार्केट शेयर होता, तो आज भारत की इतनी हिम्मत ना हो पाती कि वह खुलकर चीनी कंपनियों के खिलाफ काम कर सके।

यही हाल बाकी देशों का भी है। अमेरिका के साथ तो चीन का ट्रेड सरप्लस 400 बिलियन डॉलर से ज़्यादा का था। ऐसे में जब ट्रम्प ने चीनी कंपनियों पर एक्शन लेने और ट्रेड वॉर शुरू करने की बात कही, तो उन्हें एक बार भी सोचना नहीं पड़ा क्योंकि ऐसी बहुत ही कम अमेरिकी कंपनियाँ हैं जो चीन में बहुत बड़ा व्यापार कर सकती हैं। अमेरिका की दिग्गज टेक कंपनियां जैसे गूगल और फेसबुक तो पहले ही चीन में प्रतिबंधित हैं।

चीन की गैर-उदारवादी व्यापार नीतियाँ उसके लिए इतना बड़ा सरदर्द बनती जा रही हैं कि उसके लिए अब किसी देश या ब्लॉक के साथ व्यापार संधि करने भी बड़ा मुश्किल हो गया है। उदाहरण के लिए EU chamber of commerce के अध्यक्ष Joerg Wuttke ने उदाहरण के साथ चीन द्वारा EU की कंपनियों पर लगे व्यापारिक प्रतिबंधों का उल्लेख किया। उन्होंने कहा कि ग्रीस में चीन की एक कंपनी ने एक पोर्ट खरीदा है, जिसके माध्यम से वह कंपनी पूरे यूरोप में अपने सामान को पहुंचा पाती है, लेकिन कोई EU की कंपनी चीन में ऐसा पोर्ट खरीदकर यही काम नहीं कर सकती। चीन की कंपनी यूरोप में एक law फ़र्म खोल सकती है, लेकिन EU की कंपनी चीन में ऐसा नहीं कर सकती।

इससे स्पष्ट हो जाता है कि कैसे किसी विदेशी कंपनी के लिए चीन में बिजनेस करना बेहद मुश्किल काम है। हालांकि, अपनी इस तस्वीर को छुपाने के लिए चीन ने वर्ल्ड बैंक जैसी अंतर्राष्ट्रीय संस्था पर अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए “Ease of doing Business” रैंकिंग में अपने रैंक में तेजी से सुधार होते हुए दिखाया था। वर्ष 2016 से वर्ष 2020 के बीच में ही चीन की रैंक 84 से सीधा 31 तक आ गयी। हालांकि, अब वर्ल्ड बैंक ने मान लिया है कि उसकी इस लिस्ट में कई खामियाँ हैं और चीन, UAE, सऊदी अरब जैसे कुछ देशों ने अविश्वसनीय आंकड़े भेजे हैं।

स्पष्ट है कि चीन ने अपने यहाँ विदेशी कंपनियों के लिए बेहतर माहौल बनाने से ज़्यादा ध्यान वर्ल्ड बैंक के अधिकारियों को रिश्वत देने पर लगाया। चीन ने इन्हीं कारनामों की मदद से कई सालों तक ओबामा प्रशासन का मूर्ख बनाया, लेकिन अब ट्रम्प और मोदी जैसे नेताओं के होते हुए चीन दुनिया का और पागल नहीं बना सकता। इन नेताओं ने चीन की कमजोर नब्ज़ को पकड़ लिया है और ये अब चीन के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। दशकों से चली आ रही चीन की पक्षपाती व्यापार नीतियों के कारण आज चीन free world की दया पर जीने को मजबूर हो गया है।

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