अपराध, अपराधी और कानून, डॉक्टर से सियासत का हिस्सा बनते कफील खान

विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के सामंजस्य से देश का सिस्टम चलता है। इसी में देश का संविधान भी निहित है। लेकिन कभी—कभी ऐसा समय आ जाता है जब इन तीनों में सामंजस्य की जगह टकराव की स्थिति देखने को मिलती है। उत्तर प्रदेश के गोरखपुर बीआरडी मेडिकल कॉलेज में हुए आक्सीजन कांड में आरोपी डॉ. कफील के मामले ऐसा ही कुछ होता दिखाई दे रहा है। बता दें कि आक्सीजन कांड से पहले डॉ. कफील को गोरखपुर से बाहर कोई नहीं जानता था। लेकिन इस कांड के बाद वही हुआ कि बदनाम क्या हुए नाम तो हो गया। डॉ. कफील आज पूरे देश में मशहूर हो चुके हैं। कुछ लोग उन्हें निर्दोष मान रहे हैं तो कुछ के लिए वह विलेन बन चुके हैं। लेकिन मौजूदा उनकी गतिविधियों पर गौर किया जाए तो उनकी भूमिका संदिग्ध नजर आने लगी है।

आक्सीजन कांड में आरोपी डॉ. कफील को हाई कोर्ट से बड़ी राहत मिल गई है। कोर्ट ने उनके ऊपर लगे रासुका (एनएसए) एक्ट को रद्द करते हुए तत्काल रिहा करने का आदेश दिया और वह जेल से रिहा भी हो गए। गौरतलब है कि पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट को डॉ. कफील के मामले में जल्द फैसला देने का आदेश दिया था। डॉ. कफील के मामले में कोर्ट की तत्परता जितनी सराहनीय है उससे कहीं ज्यादा संवेदनशील भी है। क्योंकि अगस्त, 2017 में गोरखपुर बीआरडी मेडिकल कॉलेज में हुए आक्सीजन कांड में करीब 60 बच्चों की जान चली गई थी। इस मामले में डॉ. कफील की गिरफ्तारी हुई। लेकिन इसी के बाद सोशल मीडिया पर उनके पक्ष में मुहिम चलाई गई और यह साबित करने का प्रयास किया गया कि योगी सरकार जानबूझ कर उनको परेशान कर रही है।

जेल से छूटने के बाद डॉ. कफील डॉक्टरी पेशे से ज्यादा राजनीति करने में मशगूल हो गए। सरकार का विरोध करना उनके एजेंडे में शामिल हो गया। इतना ही नहीं नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ दिसंबर, 2019 में योगेंद्र यादव के साथ डॉ. कफील ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में विवादित बयान दिया था। इसको लेकर कफील के खिलाफ सिविल लाइंस में केस दर्ज किया गया और पुलिस ने उन्हें महाराष्ट्र से गिरफ्तार कर लिया था। उनकी गिरफ्तारी के बाद सोशल मीडिया पर एक बार फिर उनकी रिहाई की मांग उठने लगी। उनकी रिहाई की तैयारी फरवरी से चल रही थी कि इसी बीच उनके ऊपर एनएसए के तहत कार्रवाई कर दी गई।

दिसंबर महीने में नागरिकता संशोधन कानून (CAA) को लेकर योगेंद्र यादव के साथ डॉ. कफील ने एएमयू में विवादित बयान दिया था। इस पर कफील के खिलाफ सिविल लाइंस केस दर्ज किया गया था। इसी मामले में 10 फरवरी के बाद रिहाई की तैयारी थी, लेकिन इससे पहले उनके ऊपर रासुका (एनएसए) लगा दिया गया। डॉ. कफील ने रासुका के तहत हुई कार्रवाई के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी। इसी याचिका पर सुनवाई करते हुए 11 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट को आदेश दिया था कि डॉ. कफील की पेंडिंग याचिका पर 15 दिनों के अंदर सुनवाई सुनिश्चित कर ली जाए। इसी पर इलाहाबाद हाई कोर्ट ने डॉ. कफील पर लगे रासुका को निरस्त करते हुए उन्हें तत्काल रिहा करने का आदेश दिया। फिलहाल डॉ. कफील जेल से रिहा हो चुके हैं। लेकिन रिहा होने के बाद उन्होंने प्रशासन का शुक्रिया करते हुए कहा कि अच्छा हुआ मेरा एनकाउंटर नहीं हुआ। उनके इस बयान से साफ हो रहा है कि उनका जो तेवर हैं वह अभी भी बगावती ही है। वहीं विपक्षी पार्टियों की तरफ से उनकी प्रति पूरी सहानुभूति दिखाई जा रही है और उन्हें अपने खेमें में लाने का खेल भी शुरू हो गया है।

गौरतलब है कि अक्सर यह माना जाता है कि कोर्ट जो फैसला सुनाती है वह सही होता है। लेकिन सच यह है कि कोर्ट का फैसला गवाहों व सबूतों पर आधारित होता है। गवाह व सबूत किस तरह से मिलते है इससे हर शख्स वाकिब है। शायद यही कारण है कि रसूखदार व्यक्ति साक्ष्य व गवाहों के आभाव में अक्सर बरी हो जाते हैं। कानून की नजर में वह अपराधी नहीं होते, लेकिन इसका यह कतलब कतई नहीं होता कि उन्होंने अपराध नहीं किया था। ऐसे ढेरों उदाहरण हमारे सामने पसरे पड़े हैं जिसे बच्चा—बच्चा अपराधी समझता है लेकिन कानून की नजर में वह अपराधी नहीं होते। विधायिका, कार्यपालिका और न्यापालिका को इस समस्या का इलाज ढूंढना पड़ेगा, ताकि जनता में कानून का विश्वास बना रहे और ये तीनों स्तंभ भी आपने—सामने आने से बचे रहें। कोर्ट और आम फरियादी के बीच की जो खाई है उसे भी कम करने की दिशा में काम करने की जरूरत है। क्योंकि न्याय पाने के लिए गरीब फरियादियों की पीढ़ियां गुजर जाती हैं और पैसे वालों के लिए यह आदेश हो जाता है कि 15 दिनों में मामले की सुनवाई पूरी कर ली जाए।

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