आज़ादी से पहले भी और आजादी के बाद भी लाखों लोगों ने अपने वतन के लिए अपनी जान हँसते-हँसते कुर्बान कर दी.
आपने ज्यादातर वीर गाथाएँ तो सुनी ही होंगी लेकिन, इस नन्हे नायक की कहानी जरा कम ही जानते होंगे. ये कहानी है एक ऐसे वीर शहीद बालक बाजी राउत की. जिसने महज़ 12 साल की उम्र में दुश्मनों के दांत खट्टे कर दिए.
इनकी वजह से अंग्रेजों को दूम दबाकर भागना पड़ा. ऐसे में, इनकी वीरता की कहानी के बारे में जानना दिलचस्प रहेगा.
तो आइये, जानते हैं भारत के सबसे कम उम्र में शहीद होने वाले नायक ‘बाजी राउत’ की कहानी को-
लोगों में राजा के प्रति बढ़ रहा था गुस्सा
बाजी राउत का जन्म 1926 में ओडिशा के धेनकनाल के एक छोटे से गाँव में हुआ था. बाजी ने छोटी सी उम्र में ही अपने पिता को खो दिया था. उन्हें अकेले उनकी माँ ने पाला था. उनकी माँ पड़ोस के गांवों में जाकर अपनी आजीविका कमाती थीं. वह लोगों के घरों में चावल आदि साफ़ करके अपना घर चलाती थीं.
धेनकनाल के राजा शंकर प्रताप सिंहदेओ थे, वह गाँव के गरीब लोगों की कमाई से खसोट लेने के लिए मशहूर था. इसी शोषण की शिकार बाजी की माँ भी थीं. लोगों के अंदर राजा के प्रति गुस्सा हर बीतते दिन के साथ बढ़ता ही जा रहा था.
इसके बाद आखिर एक दिन ऐसा भी आया, जब लोगों के सब्र की सीमा नहीं रही. गाँव वालों ने इससे त्रस्त होकर विद्रोह कर दिया. इस चिंगारी को सुलगाने वाले धेनकनाल शहर के ही बैष्णव चरण पट्टनायक थे. 'वीर बैष्णव' के नाम से प्रसिद्ध पट्टनायक को गाँव वाले बहुत स्नेह और इज्ज़त देते थे.
उन्होंने राजा के खिलाफ अपना झंडा उठाया और ‘प्रजामंडल’ की स्थापना की. ‘प्रजामंडल’ का अर्थ है 'लोगों का आन्दोलन', इसके जरिये वह राजा के शोषण के खिलाफ विद्रोह कर रहे थे.
प्रजामंडल आंदोलन और बानर सेना हुईं स्थापित
इसी ‘प्रजामंडल’ में उन्होंने एक और विंग की स्थापना की. उन्होंने इस विंग का नाम ‘बानर सेना’ रखा. इस विंग में सभी बच्चे शामिल थे और अपनी कम उम्र के बावजूद बाजी राउत भी इस विंग में शामिल हो गए.
पट्टनायक ने एक प्लान बनाया, उन्होंने भारतीय रेलवे में पेंटर के तौर पर काम करना शुरू कर दिया. उन्होंने यह काम सिर्फ अपने एक छिपे हुए उद्देश्य के लिए किया था. पेंटर के रूप में वह एक जगह से दूसरी जगह जाया करते थे, जिसके लिए उन्हें रेलवे पास मिला हुआ था.
अपने इस प्लान के जरिये वह ज्यादा से ज्यादा लोगों के साथ मिलने में कामयाब हो रहे थे. वह जिस किसी से भी मुलाकात कर पाते उसे राजा के खिलाफ भड़काया करते कि वह कैसे गरीब लोगों का खून चूस रहा है.
पट्टनायक ने अपना नेटवर्क फैला लिया था और उन्होंने कटक की नेशनल कांग्रेस के नेताओं से भी मुलाक़ात की. उन्होंने उन नेताओं का ध्यान अपने राज्य की दयनीय हालत की ओर दिलाना चाहा.
अपने द्वारा की गई कई कोशिशों के बाद उन्होंने मार्क्सिस्ट क्रांतिकारी विचार पढ़ने शुरू कर दिए. मार्क्स के विचारों से वह इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने अपने गाँव के ही हारा मोहन पट्टनायक के साथ मिलकर ‘प्रजामंडल आन्दोलन’ की स्थापना की.
भड़क चुकी थी विद्रोह की चिंगारी
यह आन्दोलन धीरे-धीरे जन-जन तक पहुंचने लगा. जब इस आन्दोलन जोर पकड़ा तो, पड़ोसी राजाओं ने ढेंकनाल के राजा की मदद के लिए कदम बढ़ाए. वह जनता के इस विद्रोह को निर्ममता से कुचल देना चाहते थे. कई पड़ोसी राजाओं ने सैन्य बल भी भिजवा दिए ताकि वह जनता के विद्रोह की चिंगारी को बुझा सके.
इसके साथ ही, अंग्रेजों ने भी कलकत्ता से अपनी सेना का एक दस्ता भिजवा दिया. अंग्रेजों ने तकरीबन 250 बंदूकधारियों को वहां भेज दिया और इस तरह राजा की मदद के लिए वह भी मैदान में कूद पड़े.
इस तरह धेनकनाल के राजा ने तानाशाही का रूख अख्तियार करते हुए लोगों के आन्दोलन को बुरी तरह से रौंदना चाहा. वह लोगों के बीच डर का माहौल बना देना चाहता था ताकि लोग अपने विद्रोह से पीछे हट जाए.
इसके बाद राजा शंकर प्रताप ने लोगों पर ‘राज-भक्त कर’ या ‘ईमानदारी कर' भी लगाना शुरू कर दिया. इसके बाद जो लोग यह कर नहीं चुका पाते थे, उनके घरों को हाथियों से कुचलवा दिया जाता था. उनकी संपत्ति ज़ब्त कर ली जाती और उनका शोषण होता.
चिंगारी बन चुकी थी शोला
इस बात से ओडिशा के लोग और भी ज्यादा आक्रोशित हो गए और ‘प्रजामंडल आन्दोलन’ और भी अधिक भड़क गया. यह पहले से भी अधिक मजबूती से उभरा.
अब राजा इस जन आन्दोलन से बहुत ज्यादा परेशान हो गया था. जनता ने उसके शोषण के खिलाफ उसकी नाक में दम कर दिया था. इसके बाद उसने आन्दोलन के नेता वीर बैष्णव को ही सीधे तौर पर निशाना बनाया. उसने उनकी सारी पुरखों की ज़मीन ज़ब्त कर ली.
इसके अलावा, सितम्बर, 1938 में हारा मोहन के घर भी अचानक छापा मारते हुए उन्हें और अन्य नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया. लेकिन, पट्टनायक वहां से भागने सफल हो गए.
जब इस बात का पता अधिकारियों को चला तो, वह आग बबूला हो गए और तेजी से उनकी खोज में लग गए. उनके कानों में खबर पड़ी कि वीर भुबन नाम के गाँव में छिपे हैं. खबर लगते ही, राजा ने इस गाँव के ऊपर अंग्रेजी सैन्यबल के साथ हमला कर दिया. वह उन गाँव वालों से वीर का पता मांग रहे थे.
लेकिन, गाँव वालों ने अपनी जबान नहीं खोली. जिसके बदले में राजा ने उनके घर तहस-नहस कर दिए. वीर पट्टनायक की जानकारी मांगते हुए उन्हें बहुत टार्चर किया गया.
अंग्रेजों के सामने नहीं झुके बाजी राउत
इस दौरान, अधिकारियों के कानों में खबर लगी कि वीर नदी को पार करते हुए इस गाँव से भी फरार हो गए हैं. वह गाँव वालों की सुरक्षा के लिए ब्राह्मणी नदी में तैर कर दूसरी ओर भाग गए.
इस बात की भनक लगते ही सैन्य बल को उनके पीछे लगा दिया गया. लेकिन, उस सैन्य टुकड़ी को रोकने के लिए गाँव वाले सामने आकर एक चैन की तरह खड़े हो गए.
वह उस सेना को वहां से आगे नहीं बढ़ने दे रहे थे, जिसके बाद सेना ने उनपर अँधा-धुंध गोलियां बरसानी शुरू कर दिया. इस फायरिंग में दो लोगों की मौत भी हो गई. गोली चलते ही लोग इधर-उधर फ़ैल गए.
11 अक्टूबर, 1938 की रात को इस तरह सैन्य टुकड़ी नजदीकी घाट पर नाव के पास जा पहुंची. उसी समय महज 12 वर्षीय बाजी राउत घाट पर सुरक्षा के लिए तैनात था. बाजी को यह आदेश मिला हुआ था कि दुश्मन सैन्य टुकड़ी उस नाव से नदी के पार न जा पाए. वह नाव में ही सो रहा था.
सैन्य टुकड़ी ने बाजी से कहा कि वह अपनी नाव से उनके नदी के उस छोर तक छोड़ दे. लेकिन, छोड़ना तो बहुत दूर की बात थी, बाजी ने उनके मुंह पर इनकार कर दिया.
अंग्रेजों के बार-बार आदेश देने के बावजूद बाजी ने उन्हें मना कर दिया. इसके बाद अंग्रेजी सैनिक बौखला गए और उन्होंने बाजी के सिर पर बन्दूक की बट को इतनी तेज मारा कि उनके सिर में फ्रैक्चर आ गया.
अंग्रेजों ने बाजी को गोली मारी और...
नन्ही सी उम्र में उसके साथ अंग्रेजों का ऐसा बर्ताव वाकई में उनकी क्रूरता को दिखाता है. बाजी के ऊपर किया गया प्रहार इतना तेज था कि वह जमीन पर गिर गया. बावजूद इसके, वह जोर-जोर से चिल्लाता रहा ताकि गाँव वालों को सैनिकों की खबर लग जाए.
अंग्रेजी सैनिक यहीं नहीं रुके. उन्होंने एक बार फिर उनके सिर पर प्रहार किया. इसके बाद, निर्दयी सैनिकों ने उनपर गोली चला दी. जब गाँव वालों की इस बात का पता चला तो, उनके क्रोध की कोई सीमा नहीं रही.
सभी गाँव वाले गुस्से में घटनास्थल पर दौड़ते हुए आये. जब ब्रिटिशर्स ने उन्हें आते हुए देखा तो, वह डर गए और बहुत घबरा गए. इसके बाद वे सभी वीर पट्टनायक का पीछा करना तो दूर बल्कि गाँव से दूर अपनी जान बचाते हुए भागने लगे.
वो बाजी की नाव में सवार होकर भागने लगे, जाते-जाते उन्होंने गोलियां भी बरसानी शुरू कर दी जिसमें चार और लोगों की मौत हो गई. इसके बाद बैष्णव पट्टनायक इन सभी शहीदों के शरीर को ट्रेन के जरिए कलकत्ता ले गए. वहां लोग उन्हें लाल सलाम का नारा लगाते हुए लेने पहुंचे.
वहां बाजी राउत और अन्य शहीदों के शव को दाह-संस्कार के लिए कलकत्ता की गलियों से होते हुए मान-सम्मान के साथ ले जाया गया. उन्हें देखने के लिए हजारों की संख्या में लोग उमड़े.
बाजी राउत के नन्हे से शव से लोगों का दिल पसीज उठा. ये कुर्बानी एक छोटे से बच्चे की थी, जिसने महज 12 वर्ष की उम्र में अपने देश और उसकी आजादी के मायनों को समझा और बिना किसी डर के अंग्रेजों से आँख से आँख मिलाकर लोहा लिया.
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