भारत के खिलाफ बोलने के बाद महातिर का पतन शुरू हुआ, तुर्की के एर्दोगन अभी उसी रास्ते पर हैं


तुर्की के राष्ट्रपति और खलीफ़ा बनने के सपने देखने वाले एर्दोगन की विदेश नीति पर राजनीतिक इस्लामिस्ट विचारधारा हावी होती दिखाई दे रही है। भारत को लेकर जिस प्रकार वे हर मंच पर कश्मीर मुद्दा उठा रहे हैं, उससे स्पष्ट है कि उनके लिए देशहित से ज़्यादा अपने निजी हित मायने रखते हैं। अपनी इन हरकतों से एर्दोगन मलेशिया के पूर्व प्रधानमंत्री महातिर मोहम्मद के पदचिह्नों पर चलते दिखाई दे रहे हैं, जहां कश्मीर मामले पर उनके भारत-विरोधी बयानों के बाद ही उनका पतन शुरू हुआ था। महातिर की गलत बयानबाज़ी के कारण भारत ने मलेशिया पर आर्थिक कार्रवाई करते हुए मलेशिया के पाम ऑइल इम्पोर्ट्स पर प्रतिबंध लगा दिया, और उसका नतीजा यह हुआ है कि अब मलेशिया में आई नई सरकार कश्मीर मुद्दा पूरी तरह भूल चुकी है। बड़ा सवाल यह है कि भारत मलेशिया की ही तरह तुर्की को लाइन पर लाने के लिए किन कदमों का सहारा ले सकता है।

इस साल UN की 75वीं वर्षगांठ के अवसर पर बोलते हुए एर्दोगन ने कश्मीर को “एक ज्वलंत मुद्दा” बताया। उन्होंने कहा “हम UN के तंत्र के तहत बातचीत के जरिये कश्मीर के लोगों की इच्छा के अनुरूप इस मुद्दे को सुलझाने के पक्षधर हैं”। हर बार की तरह भारत ने इस बार भी एर्दोगन के इन बयानों की निंदा की और इसे “अस्वीकार्य” ठहराया। हालांकि, क्या मलेशिया की तरह ही भारत तुर्की  (Turkey) के खिलाफ भी कोई बड़ी कार्रवाई कर सकता है? आर्थिक पहलुओं की बात करें तो मलेशिया की अर्थव्यवस्था में, और खासकर वहाँ के पाम ऑयल बाज़ार पर भारत का बेहद ज़्यादा प्रभाव था, जिसके कारण भारत को मलेशिया के विरुद्ध एक्शन लेने में आसानी हुई। भारत-मलेशिया व्यापार में trade imbalance भी मलेशिया के पक्ष में था, जिसका भारत फायदा उठा सका था। दूसरी ओर भारत-तुर्की के सालाना 8 बिलियन के व्यापार में करीब 2.8 बिलियन का trade imbalance भारत के पक्ष में है। यानि भारत तुर्की (Turkey) को एक्सपोर्ट ज़्यादा करता है और वहां से इम्पोर्ट कम! ऐसे में तुर्की के खिलाफ आर्थिक कार्रवाई करने के लिए भारत के पास इतने ज़्यादा आर्थिक विकल्प मौजूद नहीं हैं।

भारत तुर्की को एक कड़ा संदेश भेजने के लिए भारत में काम कर रही तुर्की (Turkey) की कंपनियों को अपने यहां से ज़रूर खदेड़ सकता है। तुर्की की आधिकारिक विदेश मंत्रालय की वेबसाइट के अनुसार अभी तुर्की की कंपनिया भारत में लगभग 430 मिलियन डॉलर राशि के अनुबंधों पर काम कर रही हैं। उनमें से तुर्की की कुछ कंपनी मुंबई सबवे और लखनऊ सबवे निर्माण में लगी हैं तो वहीं जम्मू-कश्मीर में भी कुछ तुर्की की कंपनियां घर बनाने के काम में लगी हैं। ऐसे में अगर भारत इन कंपनियों से इनके प्रोजेक्ट छीन लेता है तो देखते-देखते इन कंपनियों को बड़ा नुकसान उठाना पड़ सकता है। इसके अलावा आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार भारत से तुर्की (Turkey) जाने वाले पर्यटकों की संख्या भी लगातार बढ़ रही है। वर्ष 2017 में भारत से कुल 86 हज़ार पर्यटक तुर्की (Turkey) गए थे, जबकि वर्ष 2018 में यह संख्या 1 लाख 47 हज़ार पहुँच गई, और वर्ष 2019 में यह संख्या 2 लाख 30 हज़ार तक पहुंच गयी थी। ऐसे में अगर भारत सरकार अपने नागरिकों को तुर्की जाने से हतोत्साहित करती है तो इसका खामियाजा तुर्की के टूरिज़म सेक्टर को भुगतना पड़ सकता है।

भारत के पास तुर्की को आर्थिक चोट पहुंचाने का एक और रास्ता है अपने दोस्तों के जरिये उसपर बड़ा प्रहार करने का! तुर्की अरब देशों के साथ-साथ इजरायल के साथ भी व्यापारिक रिश्ते मजबूत कर रहा है। ऐसे में भारत इन देशों पर अपने प्रभुत्व का इस्तेमाल करके इन देशों के जरिये तुर्की पर आर्थिक कार्रवाई कर सकता है। इसके साथ ही अमेरिका के जरिये भी भारत तुर्की (Turkey) पर दबाव बना सकता है। अमेरिका तुर्की का सबसे बड़ा ट्रेडिंग पार्टनर है, और अमेरिका अपने दम पर तुर्की के खिलाफ क्या कदम उठा सकता है, ये हम पहले ही देख चुके हैं। तुर्की की डूबती अर्थव्यवस्था के लिए भारत के ये कदम घातक साबित होंगे।

एर्दोगन को भारत को हल्के में नहीं लेना चाहिए। अगर भारत पाकिस्तान को अलग-थलग कर सकता है, तो भारत तुर्की (Turkey) को भी अलग-थलग कर सकता है। महातिर भी राजनीतिक इस्लाम की विचारधारा में बहकर रास्ते से भटक गए और भारत का विरोध कर अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मार बैठे। अब एर्दोगन भी उसी रास्ते पर चलते दिखाई दे रहे हैं।

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