मिसालः सबर जनजाति के बच्चों को जीवन की नई राह दिखाने वाले कॉन्सटेबल अरूप मुखर्जी

पश्चिम बंगाल में एक जनजाति पायी जाती है, जिसको सबर जनजाति कहते हैं। यह सबर जनजाति त्रेता युग की सबरी से संबंधित बतायी जाती है, जिसने भगवान श्रीराम को जूठे बेर खिलाए थे। हालाँकि प्रभु श्रीराम ने तो उसे अपना लिया, लेकिन यह जाति वर्तमान में छुआछूत की शिकार है। जी हाँ, आपको बता दें कि ग़रीबी, भुखमरी और अशिक्षा की मार झेल रहे इस समुदाय के बच्चे, बुजुर्ग और महिलाएँ इन्ही सब के चलते चोरी आदि जैसी कई तरह की आपराधिक गतिविधियों में शामिल शामिल रहते हैं। ब्रिटिश हुकूमत ने तो सबर समुदाय को 'क्रिमिनल ट्राइब' यानी कि अपराधी जनजाति का नाम दे दिया था।
ख़ैर, ऐसा कलंक झेल रही सबर जनजाति की सुध लेने वाला कोई न था। लेकिन पश्चिम बंगाल के ही पुरुलिया ज़िले के रहने वाले अरूप मुखर्जी के पिता पिता ने उन्हें आदिवासी समुदाय के लोगों के लिए काम करने की प्रेरणा दी। जिले में कहीं भी चोरी, लूट और डकैती आदि होने पर सबर समुदाय के लोगों को पकड़ लिया जाता था।
तब बालक अरूप मुखर्जी ने अपने पिता से पूछा था कि इस समुदाय के लोग इस तरह से चोरी डकैती क्यों करते हैं? तब उनके पिता ने बताया था कि या तो भूख या अशिक्षा की वजह से ही ये लोग चोरी करते हैं। इन सब बातों ने अरूप के मन को उद्वेलित कर दिया और ये बड़े होकर इन्हीं सबर जनजाति के बच्चों को जीवन की नई राह दिखाने बेड़ा उठा लिया।
ग़ौरतलब है कि ये बच्चा बड़ा होकर ट्रैफ़िक पुलिस विभाग में कॉन्सेटेबल बना और आज इस सबर जनजाति के नौनिहालों के भविष्य को संवारने में जी जान से जुटे हुए हैं। चूँकि अरूप मुखर्जी के पिता भी पुलिस में दारोगा थे। इसलिए अरूप के दिमाग़ में उनकी बातें बहुत अच्छी तरह से बस गई थीं। अरूप की इस ओर काम करने की एक और दिलचस्प प्ररेणा उनकी दादी हैं, जो रात को चोरी-छिपे सबर समुदाय के घरों में जाती थीं और उन्हें खाने के लिए भोजन देकर आती थी।
यह तमाम चीजें उन्हें समुदाय के बच्चों के लिए काम करने को प्रेरित करती रही, जिसे आज उन्होंने साकार किया है। इसके लिए अरूप ने एक स्कूल खोला हुआ है, जहाँ ये सबर जनजाति के बच्चों को निःशुल्क शिक्षा देने का काम करते हैं।

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