उनसे कम से कम एक पक्ष को तो यदाकदा न्याय मिल ही जाता है। कई बार वे अफसरों कर्मचारियों को धमकाकर रिश्वत भी माफ करवा देते हैं। हाल में एक हिन्दी प्रदेश के डी.आई.जी. स्तर के रिटायर अफसर ने अपने साथ हुए अन्याय की शिकायत एक माफिया से की और उन्हें न्याय भी मिल गया। चूंकि सरकारी कार्यालयों और अदालतों से न्याय पाना अधिकतर लोगों के लिए इन दिनों बहुत मुश्किल काम है, इसलिए उसका लाभ राजनीतिक संरक्षणप्राप्त अपराधियों को मिल जाता है। यानी, अपने देश की आपराधिक न्याय व्यवस्था यानी क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम के जाल से
55 प्रतिशत आरोपित साफ बच निकलते हैं।
55 प्रतिशत आरोपित साफ बच निकलते हैं।
इस देश की अदालतों से औसतन 45 प्रतिशत आरोपितों को ही सजा मिल पाती है। इस मामले में हिन्दी राज्यों की स्थिति तो और भी खराब है। चूंकि ऐसे दुर्दान्त अपराधी समाज के एक हिस्से के लिए यदाकदा रोबिनहुड की भूमिका में होते हैं, इसलिए वे अपनी जाति का वोट भी कंट्रोल करते हैं।
ऐसे अपराधियों में केंद्र व राज्यों में राजनीतिक कार्यपालिका के बड़े -बड़े पदों पर भी बैठने की संभावना रहती है,इसलिए उसकी जाति के कई लोग उसके आसपास मड़राने लगते हैं। अधिकतर राजनीतिक दलों के लिए यह सुविधाजनक बात होती है कि वे ऐसे निर्मम हत्यारों को भी टिकट दे दें ताकि सीटें आसानी से निकल जाए। यदि ‘आपराधिक न्याय व्यवस्था’ को ठीक ठाक किया जाए तो
ऐसे अपराधियों पर नकेल कसने में भी सुविधा हो जाएगी। पर, क्या इस देश में ऐसा कभी हो पाएगा ? पता नहीं !
ऐसे अपराधियों पर नकेल कसने में भी सुविधा हो जाएगी। पर, क्या इस देश में ऐसा कभी हो पाएगा ? पता नहीं !
(वरिष्ठ पत्रकार सुरेन्द्र किशोर के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)
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