खराब सिस्टम की देन हैं हिस्ट्रीशीटर विकास दुबे से लेकर यूपी के अन्य कुख्यात गैंगस्टर

गुरुवार को कानपुर मुठभेड़ के बाद से चर्चा में आए हिस्ट्रीशीटर विकास दुबे के खिलाफ बीत 19 साल पहले हत्या का मुकदमा लिखाया गया था। विकास पर आरोप था कि उसने तत्कालीन तत्कालीन राज्यमंत्री संतोष शुक्ला की थाने में घुसकर हत्या कर दी। इस थाने के पुलिस गवाही से मुकरी और विकास दुबे के खिलाफ चल रही तफ्तीश कमजोर हो गई। जिससे विकास दुबे छूट गया। इसके बाद से शुरू होता है विकास आतंक। जिसके परिणाम बीते गुरुवार को देखने को मिला जिसमें उसने सीओ सहित 8 पुलिसकर्मियों की हत्या कर दी। यह घटना आईना है उत्तर प्रदेश में वर्षों से चले आ रहे पुलिस, नेता और अपराधियों के गठजोड़ का।
पुलिस-राजनीति-अपराध का गठजोड़- एक रिटायर्ड आईपीएस कहते हैं कि 25 हजार का इनामी बदमाश सीओ समेत आठ पुलिस वालों को मार डाले, यह बात ताज्जुब में डाल देती है। 35 साल तक उत्तर प्रदेश की पुलिसिंग से जुड़े रहे इस तेज-तर्रार अफसर के लिए इस घटना की वजह को तुरंत समझ पाना वाकई मुश्किल है। यूपी में पुलिस, सियासत और अपराध का गठजोड़ ही ऐसा रहा है। यहां हार्डकोर अपराधियों के लिए पुलिस वाले की हत्या करना दरबार में आए दूत को मारने जैसा अनैतिक अपराध माना जाता है। बड़े से बड़े माफिया, ऑर्गनाइज्ड गिरोह और बाहुबली भरसक कोशिश करते हैं कि पुलिस वाला उनके हाथों न मारा जाए। अलबत्ता पुलिस वालों की बढ़िया पोस्टिंग में अपराधियों से नेता बने जरायम पेशा लोग मददगार जरूर होते रहे। कानपुर में विकास दुबे के हाथों हुए इस कांड ने पुलिस महकमे को हिलाकर रख दिया है।
ऐसी दो घटनाएं ही याद आती हैं। एक तो उनमें नक्सली हमला था। चंदौली जिले में 20 नवंबर 2004 को डेढ़ सौ से अधिक नक्सलियों ने घात लगाकर 17 कॉन्स्टेबलों को मार दिया था। इसके अलावा 1981 में एटा जिले के अलीगढ़ थाने में डाकू छविराम के गिरोह ने 9 पुलिस वालों को घेर कर मार डाला था। अपने मुखबिरों और पुलिस में बैठे भेदियों के जरिए छविराम ने गिरोह का पीछा कर रहे इंस्पेक्टर राजपाल सिंह को थका-थकाकर निढाल कर दिया। उसने अपने गिरोह को छोटे-छोटे टुकड़ों में बांटकर पहले तो पुलिस को चकमा दिया। फिर घेर कर इंस्पेक्टर समेत नौ लोगों को मार डाला। इसी दौरान बेहमई कांड हुआ। इसके बाद एक दर्जन से अधिक मल्लाहों और फिर यादवों को मारे जाने के दो बड़े कांड हुए थे। इन्हीं घटनाओं के मद्देनजर तत्कालीन मुख्यमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह को अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा था। हालांकि उससे पहले बाबा मुस्तकीम और छविराम गिरोह को पुलिस ने एनकाउंटर करके खत्म कर दिया था।
अपराधी गिरोहों ने कभी पुलिस से सीधा मोर्चा नहीं लिया
शायद यह वही दौर था जब नेता, पुलिस और अपराधियों ने अपने दायरों को समझ लिया। यूपी में पूरब से लेकर पश्चिम तक के बड़े से बड़े अपराधी गिरोह ने पुलिस से सीधा मोर्चा कभी नहीं लिया। राजनीति के अपराधीकरण का केंद्र पूर्वी उत्तर प्रदेश का गोरखपुर रहा है। अस्सी-नब्बे के दशक में हरिशंकर तिवारी गिरोह का दबदबा था। तिवारी खुद विधायक बने। बाद में उनके गिरोह के रजिस्टर्ड मेंबर रहे साथी भी चुनाव जीतकर विधानसभा पहुंचे। फिलहाल मधुमिता हत्याकांड के दोषी अमरमणि त्रिपाठी भी इनमें से एक थे। इनमें से किसी ने भी पुलिस से सीधी मुठभेड़ नहीं की। उनकी प्रतिद्वंद्विता वीरेंद्र शाही गिरोह से थी। इनकी मुठभेड़ों में काफी लोग मारे गए।
विकास दुबे और श्रीप्रकाश शुक्ला
मुठभेड़ में श्रीप्रकाश ने की थी दरोगा की हत्या- हां, कुख्यात माफिया श्रीप्रकाश शुक्ल की एक घटना जरूर याद आती है। श्रीप्रकाश हजरतगंज के एक मशहूर हेयर ड्रेसर के यहां दाढ़ी बनवाने आया था। पुलिस को खबर लग गई। घेराबंदी हुई तो फायरिंग करता हुआ श्रीप्रकाश दारुलशफा विधायक निवास की ओर भाग निकला। दरोगा आर.के. सिंह ने उसका पीछा किया। पीछा करते हुए आर.के. सिंह को ठोकर लगी और वह गिर पड़े। उनकी रिवॉल्वर छिटककर गिर गई। भाग रहा श्रीप्रकाश अचानक पलट पड़ा और रिवॉल्वर उठाकर सब इंस्पेक्टर आर.के. सिंह को मार दिया। हालांकि यह घटना बाद में उस पर भारी पड़ी। इस मुठभेड़ में शामिल रहे सीनियर अफसरों ने उसे बाद में मुठभेड़ में मार गिराया। वाराणसी के ब्रजेश सिंह, त्रिभुवन सिंह, मुख्तार अंसारी और इलाहाबाद के अतीक अहमद जैसे बाहुबलियों ने पुलिस पर सीधा अटैक नहीं किया। प्रदेश के ज्यादा अपराधियों और बाहुबली विधायकों का यही दस्तूर रहा। पुलिस वाले, आईएएस और नेता भी बाहुबलियों के साथ अपने संबंधों को निर्वाह समय समय पर खूब करते रहे।
अब विकास दुबे के मामले से ही समझ लीजिए। थाने में मारे गए संतोष शुक्ला के भाई मनोज शुक्ला कहते हैं कि उनके भाई की हत्या में पुलिस की कमजोर चार्जशीट और पुलिस वालों के बयानों से मुकरने के कारण वह बच निकला था। अब वही विकास पुलिस वालों की मौत का कारण बना। 2005 में वह शुक्ला हत्याकांड से बरी हो गया। तत्कालीन सरकार हाई कोर्ट भी नहीं गई क्योंकि तब उसे बीएसपी का संरक्षण था। स्थानीय लोग बताते हैं कि वह एक प्रिंसिपल की हत्या के मामले में आजीवन कारावास की सजा के कारण जेल में था। आम चुनाव से पहले एक सत्तारूढ़ दल के नेता ने उसे जेल से बाहर निकलवाने में मदद की। वही मदद अब आठ पुलिस वालों की हत्या का कारण बनी।
राजनीति और पुलिस में सुधार की जरूरत- दरअसल पुलिस सुधार और राजनीतिक सुधार दोनों की जरूरत है। राजनीति में पुलिस और अपराधियों के इस्तेमाल के कारण जो हालात बन रहे हैं, वह खतरनाक हैं। एक पार्टी की सत्ता रहने पर जो लोग खुद को सुरक्षित महसूस करते हैं, वह सत्ता बदलने पर अचानक जोखिम में आ जाते हैं। कम से कम पुलिस के लिए तो यह ठीक नहीं। 1861 में बने पुलिस कानूनों में आज की जरूरतों के हिसाब से बदलाव बेहद जरूरी है। और इसके साथ ही सियासत को भी बदलना होगा।
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